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क्या इस्लाम एक संतुलित तथा आसान धर्म है?

धर्म मूल रूप से लोगों को उनके द्वारा खुद पर लगाए गए कई प्रतिबंधों से राहत दिलाने के लिए आता है। उदाहरण स्वरूप, इस्लाम से पूर्व जाहिलियत के समय कई घिनौनी प्रथाएँ फैल गई थीं, जैसे लड़कियों को ज़िंदा दफ़न कर देना, कुछ प्रकार के खानों को मर्दों के लिए हलाल एवं औरतों के लिए हराम कर देना, औरतों को विरासत से महरूम कर देना, इसी तरह मुरदार खाना, व्यभिचार, शराब पीना, यतीम का माल खाना और सूदखोरी आदि दूसरे ग़लत कार्य।

लोगों के धर्म से विमुख होने और भौतिक विज्ञान को ही अपना लेने का एक प्रमुख कारण कुछ लोगों के यहाँ कुछ धार्मिक अवधारणाओं में अंतर्विरोधों का पाया जाना है। इसलिए, जो कारण तथा विषेशताएँ लोगों को सही धर्म अपनाने के लिए आमंत्रित करती हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण कारण उसका संतुलित होना है और यह बात हम इस्लाम धर्म में स्पष्ट रूप से पाते हैं।

अन्य धर्मों की समस्या, जो एक सच्चे धर्म की विकृति से उत्पन्न हुई है :

शुद्ध आध्यात्मिकता है, जो अपने अनुयायियों को वैराग्य तथा एकांतवाद के लिए प्रोत्साहित करती है

शुद्ध भौतिकवाद।

यह पिछले संप्रदायों और जातियों के बहुत-से लोगों को आम तौर पर धर्म से दूर करने का कारण बना।

साथ ही हम कुछ अन्य लोगों के यहाँ बहुत सारे गलत क़ानून, आदेश और प्रथाएँ पाते हैं, जिन्हें धर्म से जोड़ दिया गया है, ताकि लोगों को उनका पालन करने पर मजबूर किया जा सके, जिन्होंने लोगों को सही रास्ता एवं स्वाभाविक धर्म की अवधारणा से दूर कर दिया। इस तरह बहुत सारे लोग धर्म की सच्ची अवधारणा, जो मनुष्य की स्वाभाविक ज़रूरतों को पूरा करता है और जिससे कोई असहमत नहीं है, तथा बाप-दादा से विरासत में पाए कामों, आदतों, रस्म-रिवाजों एवं मानव निर्मित क़ानूनों के बीच अंतर करने की क्षमता खो देते हैं, जो बाद में धर्म को आधुनिक विज्ञान से बदलने की मांग को जन्म देता है।

सच्चा धर्म वह है जो लोगों को राहत देने और उनके दुखों को दूर करने और ऐसे नियमों और क़ानूनों को स्थापित करने के लिए आता है, जिनका पहला उद्देश्य लोगों के लिए आसानी पैदा करना है।

अल्लाह तआला ने कहा है :

“और तुम अपने आप को क़त्ल न करो। बेशक अल्लाह तुमपर दया करने वाला है।" [199] [सूरा अल-निसा : 29]

''और अपने आपको विनाश में न डालो तथा नेकी करो, निःसंदेह अल्लाह नेकी करने वालों से प्रेम करता है।''। [200] [सूरा अल-बक़रा : 195]

''तथा उनके लिए पाकीज़ा चीज़ों को हलाल (वैध) करता और उनपर अपवित्र चीज़ों को हराम (अवैध) ठहराता है और उनसे उनका बोझ और वह तौक़ उतारता है, जो उनपर पड़े हुए थे।'' [201] [सूरा अल-आराफ़ : 157]

तथा अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का फ़रमान है :

''आसानी पैदा करो और कठिनाई में न डालो, तथा सुसमाचार सुनाओ एवं नफ़रत न दिलाओ।'' [202] [सहीह बुख़ारी]

यहाँ हम उन तीन व्यक्तियों की कहानी का उल्लेख करना चाहेंगे, जो आपस में बात कर रहे थे। उनमें से एक ने कहा कि मैं पूरी रात नमाज़ पढ़ूँगा, दूसरे ने कहा कि मैं पूरे साल रोज़ा रखूँगा और कभी बेरोज़ा नहीं रहूँगा। जबकि तीसरे ने कहा कि मैं औरत से दूर रहूँगा और कभी शादी नहीं करूँगा। चुनाँचे अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उनके पास आए और फरमाया :

''तुम लोग यह और यह कह रहे थे? अल्लाह की क़सम, मैं तुम्हारे अंदर अल्लाह से सबसे अधिक डरने वाला और उसका सबसे अधिक भय करने वाला हूँ। परन्तु मैं रोज़ा रखता हूँ, बेरोज़ा भी रहता हूँ, नमाज़ पढ़ता हूँ, सोता भी हूँ और औरतों से शादी भी करता हूँ। अतः जो मेरी सुन्नत से मुँह मोड़ेगा वह मुझमें से नहीं है।'' [203] [सहीह बुख़ारी]

आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह बात अब्दुल्लाह बिन अम्र के सामने भी स्पष्ट रूप से कह दी थी, जब आपको मालूम हुआ था कि वह पूरी रात नमाज़ पढ़ते हैं, पूरे साल रोज़ा रखते हैं और हर रात एक क़ुरआन ख़त्म करते हैं। आपने फरमाया था :

''ऐसा मत करो। नमाज़ भी पढ़ो और सोओ भी, रोज़ा भी रखो और बेरोज़ा भी रहो। इसलिए कि तुम्हारे शरीर का तुमपर हक़ है, तुम्हारी आँख का तुमपर हक़ है, तुम्हारे अतिथियों का तुमपर हक़ है और तुम्हारी पत्नी का तुमपर हक़ है।'' [204] [सहीह बुख़ारी]