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अंजाम का निर्धारण एवं सुरक्षा तक पहुँचना :

क्या इंसान अपने माता-पिता और पूर्वजों के धर्म को बदल सकता है?

इस ब्रह्मांड के चारों ओर तलाश करना एवं ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य का अधिकार है। अल्लाह ने हमें यह बुद्धि इसलिए दी है, ताकि हम इसका प्रयोग करें, न कि इसे बेकार छोड़ दें। जो भी व्यक्ति अपनी बुद्धि का उपयोग किए बिना या अपने पितरों के धर्म का विश्लेषण किए बिना उसका पालन करता है, वह अपने आपपर अत्याचार करता है, खुद अपना तिरस्कार करता है और अल्लाह की दी हुई अक़्ल जैसी एक बहुत बड़ी नेमत का तिरस्कार करता है।

कितने मुसलमान एक एकेश्वरवादी परिवार में पैदा हुए फिर अल्लाह के साथ शिर्क कर सत्य मार्ग से भटक गए। वहीं बहुत सारे लोग ऐस हैं, जो बहुदेववाद या ट्रीनिटी में विश्वास रखने वाले ईसाई धर्म में पैदा हुए और फिर उन्होंने अल्लाह के एकमात्र पूज्य होने की गवाही दे दी।

निम्नलिखित प्रतीकात्मक कहानी इसी बात की व्याख्या करती है। एक पत्नी ने अपने पति के लिए मछली पकाई, परन्तु उसने उसे पकाने से पहले उसका सर एवं पूंछ काट दी। जब उसके पति ने उससे पूछा कि तुमने सर और पूंछ को क्यों काट दिया? तो उसने कहा कि मेरी माँ इसे इसी तरह पकाती है। पति ने माँ से पूछा कि जब आप मछली पकाती हैं तो पूंछ और सर क्यों काट देती हैं? माँ ने जवाब दिया कि मेरी माँ इसे ऐसे ही पकाती हैं। तब पति ने दादी से पूछा कि आप सर और पूंछ क्यों काटती हैं? उन्होंने जवाब दिया कि घर में खाना पकाने का बर्तन छोटा था और मछली को बर्तन में फिट करने के लिए मुझे सिर और पूंछ काटनी पड़ती थी।

तथ्य यह है कि हमसे पहले के युगों में घटी पिछली कई घटनाएं उनके युग और समय के अनुसार फिट थीं। उनके कारण होते थे, जो उनके साथ खास थे। पिछली कहानी इसी को स्पष्ट करती है। वास्तव में, यह एक मानवीय विपत्ति है कि हम ऐसे समय में जीते हैं जो हमारा अपना समय नहीं है तथा हम अलग-अलग परिस्थितियों और बदलते समय के बावजूद बिना सोचे समझे या पूछे दूसरों के कार्यों की नकल करने लगते हैं।

अल्लाह तआला ने कहा है :

"निःसंदेह अल्लाह किसी जाति की दशा नहीं बदलता, जब तक वे स्वयं अपनी दशा न बदल लें।" [329] [सूरा अल-राद : 11]

उस व्यक्ति का अंजाम क्या, होगा जिस तक इस्लाम का संदेश न पहुँचा हो?

इन लोगों पर महान अल्लाह अत्याचार नहीं करेगा, मगर क़यामत के दिन उनकी परीक्षा लेगा?

जिन लोगों को इस्लाम को ठीक से देखने का अवसर नहीं मिला है, उनके पास कोई बहाना नहीं है। क्योंकि, जैसा कि हमने बताया, उन्हें खोजने और सोचने में कमी नहीं करनी चाहिए। यद्यपि तर्क की स्थापना के संबंध में निश्चित होना कठिन है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों से भिन्न होता है (इस मामले में कि उसपर तर्क स्थापित हुआ या नहीं)। अज्ञानता के उज्र या तर्क न पहुँचने के उज्र (excuse) का फैसला आख़िरत में अल्लाह तआला करेगा। जहाँ तक दुनिया की बात है, तो यहाँ जो सामने नज़र आए, उसके अनुसार व्यवहार किया जाएगा।

इन सब तर्कों के बाद जो अल्लाह ने लोगों पर क़ायम किए, यदि अल्लाह ने उनपर दण्ड की आज्ञा दे दी, तो यह अन्याय नहीं होगा। तर्क का मलतब है अक़्ल, स्वाभाविक प्रवृत्ति और वो संदेश एवं निशानियाँ जो ब्रह्मांड एवं स्वयं इन्सान के अंदर मौजूद हैं। इन सब के बदले में उन्हें कम से कम यह करना चाहिए कि वे अल्लाह तआला को जानें और उसे एक मानें और कम से कम इस्लाम के स्तंभों के प्रति प्रतिबद्ध रहें। यदि उन्होंने ऐसा किया तो सदैव के जहन्नम से नजात पा लेंगे एवं दुनिया व आख़िरत में ख़ुशी पाएंगे। क्या आप समझते हैं कि यह मुश्किल है?

अल्लाह तआला का अपने बन्दों पर अधिकार है, जिन्हें उसने पैदा किया है कि वे केवल उसी की इबादत करें। जबकि अल्लाह पर उसके बंदों का हक़ यह है कि वह उन लोगों को सज़ा न दे, जो उसके साथ किसी को शरीक नहीं करते हैं। मामला बहुत सरल है। यह वो शब्द हैं जिन्हें इंसान कहता है, उनपर ईमान रखता है और उनके अनुसार अमल करता है। यह नजात के लिए पर्याप्त है। क्या यह न्याय नहीं है? यही महान अल्लाह का आदेश है और वह न्याय करने वाला, नरमी करने वाला एवं जानकारी रखने वाला है। यही अल्लाह तआला का धर्म है।

वास्तविक मुश्किल यह नहीं है कि इंसान गुनाह करे या ग़लती। क्योंकि गलती करना मानव स्वभाव है। इसलिए आदम का हर बेटा गलती करता है। पाप करने वालों में सबसे अच्छा व्यक्ति वह है, जो तौबा करता है, जैसा कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है। परन्तु मुश्किल यह है कि वह गुनाह करने में अटल रहे और उस पर डट जाए। यह भी दोष है कि एक व्यक्ति को नसीहत की जाए परन्तु वह न नसीहत सुनता हो और न उसपर अमल करता हो। उसको याद दिलाया जाए, लेकिन याद दिलाने का कोई लाभ न हो। उसे प्रवचन दिया जाए और वह प्रवचन को स्वीकार न करे और उपदेश को ठुकरा दे। न तौबा करे और न क्षमा मांगे। बल्कि डट जाए, मुँह फेर ले और घमंड करता फिरे।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''और जब उसके समक्ष हमारी आयतें पढ़ी जाती हैं, तो घमंड करते हुए मुँह फेर लेता है, जैसे उसने उन्हें सुना ही नहीं, मानो उसके दोनों कानों में बहरापन है। तो आप उसे दुःखदायी यातना की शुभसूचना दे दें।'' [330] [सूरा लुक़मान : 7]

सुरक्षित स्थान क्या है?

अल्लाह तआला ने कहा है :

इन आयतों में जीवन की यात्रा के अंत और सुरक्षित स्थान तक पहुंचने का सार बताया गया है।

''तथा धरती अपने पालनहार की ज्योति से जगमगाने लगेगी, और कर्मलेख (खोलकर लोगों के आगे) रख दिए जाएँगे, तथा नबियों और साक्षियों को लाया जाएगा, और उनके बीच सत्य के साथ निर्णय कर दिया जाएगा और उनपर अत्याचार नहीं किया जाएगा। तथा प्रत्येक प्राणी को उसके कर्म का पूरा-पूरा फल दिया जाएगा। तथा वह भली-भाँति जानता है उसे, जो वे करते हैं। तथा जो लोग काफ़िर होंगे, वे जहन्नम की ओर गिरोह के गिरोह हाँके जाएँगे। यहाँ तक कि जब वे उसके पास आएँगे, तो उसके द्वार खोल दिए जाएँगे तथा उसके रक्षक उनसे कहेंगेः "क्या तुम्हारे पास तुम्हीं में से रसूल नहीं आए थे, जो तुम्हें तुम्हारे पालनहार की आयतें सुनाते रहे तथा तुम्हें अपने इस दिन का सामना करने से सचेत करते रहे?" वे कहेंगेः "क्यों नहीं? परन्तु, काफ़िरों पर यातना की बात सिद्ध हो चुकी है। नसे कहा जाएगाः जहन्नम के द्वारों में प्रवेश कर जाओ। उसमें सदावासी रहोगे। अतः क्या ही बुरा है अभिमानियों का ठिकाना! तथा जो लोग अपने पालनहार से डरते रहे, वे जन्नत की ओर गिरोह के गिरोह ले जाए जाएँगे। यहाँ तक कि जब वे उसके पास पहुँच जाएँगे तथा उसके द्वार खोल दिए जाएँगे और उसके रक्षक उनसे कहेंगेः सलाम है तुमपर। तुम पवित्र हो। सो तुम इसमें हमेशा रहने को प्रवेश कर जाओ। तथा वे कहेंगे : सब प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जिसने हमसे किया हुआ अपना वचन सच कर दिखाया, तथा हमें इस धरती का उत्तराधिकारी बना दिया। हम स्वर्ग के अंदर जहाँ चाहें, रहें। क्या ही अच्छा बदला है कर्म करने वालों का।" [331] [सूरा अल-ज़ुमर : 69-74]

मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है, वह अकेला है और उसका कोई साझी नहीं है।

और मैं गवाही देता हूँ कि मुह़म्मद उसके बंदे और रसूल हैं।

इसी तरह मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सभी रसूल सच्चे हैं।

साथ ही मैं गवाही देता हूँ कि जन्नत सत्य है और जहन्नम सत्य है।