सृष्टिकर्ता अपने बंदों से पाप क्यों स्वीकार नहीं करता है?
यदि कोई व्यक्ति अल्लाह की अवज्ञा करना चाहता है, तो वह उसकी प्रदान की हुई आजीविका में से न खाए, उसकी धरती छोड़ दे और उसे एक सुरक्षित स्थान की तलाश करनी चाहिए, जहाँ अल्लाह उसे न देख सके। जब मौत का फ़रिश्ता उसकी आत्मा को क़ब्ज़ करने आए, तो उससे कहे कि थोड़ा समय दो, ताकि मैं सच्ची तौबा कर लूँ एवं नेक काम कर लूँ। जब क़यामत के दिन अज़ाब के फ़रिश्ते उसे जहन्नम ले जाने के लिए आएं, तो उनके साथ न जाए, उनका मुक़ाबला करे, उनके साथ जाने से मना कर दे और जन्नत में जाने की ज़िद करे। क्या ऐसा करना संभव है? [317] इब्राहीम बिन अदहम की कहानी :
जब कोई व्यक्ति अपने घर में कोई पालतू जानवर रखता है, तो उससे ज़्यादा से ज़्यादा यह आशा करता है कि वह उसकी बात माने। यह इसलिए कि उसने उसको ख़रीदा है, उसे पैदा नहीं किया है। ऐसे में अपने सृष्टिकर्ता के बारे में हमारी क्या राय है? क्या वह हमारे अज्ञापालन, इबादत एवं समर्पण का अधिकार नहीं रखता है। इस सांसारिक यात्रा में हम कई मामलों में अपनी इच्छा के विरुद्ध समर्पण करते हैं। हमारा दिल धड़कता है, हमारा पाचन तंत्र काम करता है, हमारी इंद्रियां पूरी तरह से अनुभव करती हैं और हमें केवल अल्लाह के आगे अपने बाकी मामलों में समर्पण करना है, जिसमें हमें चुनने का विकल्प दिया गया है, ताकि हम सुरक्षित रूप से नजात के साहिल पर पहुंच सकें।
हमें ईमान एवं सारे संसारों के रब के प्रति समर्पण के बीच अंतर करना होगा।
सारे संसारों के रब का आवश्यक अधिकार, जिसे छोड़ना किसी के लिए उचित नहीं है, यह है कि उसके एक होने को स्वीकार किया जाए, उसी की इबादत की जाए, उसके साथ किसी को साझी न ठहराया जाए। वही एक सृष्टिकर्ता है, उसी की बादशाहत है, उसी का आदेश चलता है, चाहे हम मानें या इंकार कर दें। यही ईमान का मूल है (ईमान स्वीकार करने एवं काम करने का नाम है)। इसके अतिरिक्त हमारे पास दूसरा विकल्प नहीं है। इसी की रोशनी में इंसान का हिसाब होगा एवं उसे सज़ा दी जाएगी।
समर्पण का उलटा अपराध है।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''क्या हम आज्ञाकारियों को पापियों के समान कर देंगे?'' [318] [सूरा अल-क़लम : 35]
किसी को सारे संसारों के रब के बराबर या साझी ठहराने को अत्याचार कहते हैं।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''जानते हुए तुम अल्लाह तआला के साझी न बनाओ।'' [319] [सूरा अल-बक़रा : 22]
"जो लोग ईमान रखते हैं और अपने ईमान को शिर्क से नहीं मिलाते हैं, ऐसे ही लोगों के लिए शान्ति है और वही सीधे रास्ते पर चल रहे हैं।" [320] [सूरा अल-अनआम : 82]
ईमान एक अनदेखा मुद्दा है, जिसके लिए अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी पुस्तकों, उसके रसूलों और अंतिम दिन पर विश्वास रखना आवश्यक है। साथ ही अल्लाह के निर्णयों को स्वीकार करना और उससे संतुष्ट होना ज़रूरी है।
अल्लाह तआला ने कहा है [321]:
''(कुछ) बद्दुओं ने कहा : हम ईमान ले आए। आप कह दें : तुम ईमान नहीं लाए। परंतु यह कहो कि हम इस्लाम लाए (आज्ञाकारी हो गए)। और अभी तक ईमान तुम्हारे दिलों में प्रवेश नहीं किया। और यदि तुम अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करोगे, तो वह तुम्हें तुम्हारे कर्मों में से कुछ भी कमी नहीं करेगा। निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।'' [321] [सूरा अल-हुजुरात : 14]
उपर्युक्त आयत हमें बताती है कि ईमान एक उच्च और महान दर्जा है। ईमान नाम है राज़ी होने, स्वीकार करने और ख़ुश होने का। ईमान की कई श्रेणियाँ एवं दर्जे हैं और ईमान घटता-बढ़ता रहता है। ग़ैब के मामलों को समझने की क्षमता ओर दिल का उन्हें स्वीकार करना एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। उसी प्रकार इंसान अपने रब के जमाल व जलाल के गुणों को समझने एवं रब को जानने में अलग-अलग होते हैं।
ग़ैब के मामलों को कम समझने या सोच के संकीर्ण होने पर इंसान की पकड़ नहीं होगी, परन्तु सदैव जहन्नम में रहने से बचने के लिए कम से कम जो चीज़ उसके लिए आवश्यक है उसपर उसकी पकड़ होगी। यह आवश्यक है कि अल्लाह को एक माना जाए और यह माना जाए कि सारी सृष्टि उसी की है, सारे संसार में उसी का आदेश चलता है एवं उसी की इबादत होनी चाहिए। इसे स्वीकार कर लेने के बाद अल्लाह जिसके चाहे अन्य गुनाहों को माफ़ कर दे। इसके अलावा इंसान के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। या तो ईमान औ सफलता या फिर कुफ़्र और बर्बादी। या तो कुछ है या फिर कुछ नहीं है।
अल्लाह तआला ने कहा है :
"निःसंदेह अल्लाह यह क्षमा नहीं करेगा कि उसका साझी बनाया जाए और उसके सिवा जिसे चाहे, क्षमा कर देगा। जो अल्लाह का साझी बनाता है, तो उसने महा पाप गढ़ लिया।" [322]
ईमान ग़ैब से जुड़ा हुआ विषय है और ग़ैब के ज़ाहिर होने या क़यामत की निशानियाँ दिख जाने के बाद ईमान लाने का कोई फ़ायदा नहीं रह जाएगा। [सूरा अल-निसा : 48]
अल्लाह तआला ने कहा है :
''जिस दिन तुम्हारे पालनहार की तरफ से कोई निशानी आ जाएगी, तो उस दिन उसका ईमान लाना उसको कोई काम न देगा, जो पहले से ईमान न लाया हो, या ईमान की स्थिति में कोई सत्कर्म न किया हो।'' [323] [सूरा अल-अन्आम : 158]
यदि कोई व्यक्ति ईमान रखते हुए नेक कामों से लाभान्वित होना चाहता है और अपनी नेकियों को बढ़ाना चाहता है, तो यह क़यामत आने और परोक्ष के प्रकट होने से पहले होना चाहिए।
जहाँ तक उस व्यक्ति की बात है, जिसके खाते में नेक काम नहीं हैं, अगर वह हमेशा के जहन्नम से बचना चाहता है, तो उसके लिए अनिवार्य है कि वह दुनिया से इस अवस्था में निकले कि अल्लाह के सामने समर्पित हो, अल्लाह के एक होने पर विश्वास रखता हो और उसकी इबादत करता हो। कुछ पापियों को अस्थायी रूप से जहन्नम में जाना पड़ सकता है, परन्तु यह अल्लाह की चाहत के तहत है। यदि वह चाहेगा तो क्षमा कर देगा और यदि चाहेगा तो जहन्नम में डाल देगा।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''हे ईमान वालो! अल्लाह से ऐसे डरो, जैसे वास्तव में उससे डरना होता है, तथा तुम्हारी मौत इस्लाम पर रहते हुए ही आनी चाहिए।'' [324] [सूरा आल-ए-इमरान : 102]
इस्लाम में ईमान का मतलब ज़बान से इक़रार करना और उसके तक़ाज़े पर अमल करना है। ईमान का मतलब केवल विश्वास नहीं है, जैसा कि आज ईसाई धर्म की शिक्षाओं में है और न केवल अमल है, जैसा कि नास्तिक्ता में है। वह व्यक्ति जो ग़ैब पर ईमान एवं धैर्य के स्टेज में है, उसका ईमान उस व्यक्ति के बराबर नहीं हो सकता है, जिसने आख़िरत में ग़ैब को देख लिया हो और उसके आगे परोक्ष प्रकट हो चुका हो। इसी तरह वह व्यक्ति जिसने मुसीबत, सख़्ती, कमज़ोरी एवं इस्लाम के अंजाम से अज्ञानता की अवस्था में अल्लाह के लिए काम किया है, उस व्यक्ति के बराबर नहीं हो सकता है जिसने अल्लाह के लिए उस समय काम किया हो, जब इस्लाम विजयी और शक्तिशाली हो चुका हो।
अल्लाह तआला ने कहा है :
“तुम में से जिन लोगों ने विजय से पूर्व अल्लाह के मार्ग में ख़र्च किया तथा धर्मयुद्ध किया, वह (दूसरों के) समतुल्य नहीं, अपितु उनसे अत्यंत उच्च पद के हैं, जिन्होंने विजय के पश्चात दान किया तथा धर्मयुद्ध किया। हाँ, भलाई का वचन तो अल्लाह तआला का उन सब से है, और अल्लाह उन सब की अच्छी तरह ख़बर रखता है जो तुम करते हो।” [325] [सूरा अल-हदीद : 10]
अल्लाह बिना कारण किसी को दंडित नहीं करता। इंसान का हिसाब लिया जाएगा और उसे या तो बन्दों के अधिकार बर्बाद करने के कारण या फिर सारे संसारों के रब के अधिकार को नष्ट करने के कारण दंडित किया जाएगा ।
वह अधिकार जिसे, सदैव के जहन्नम से नजात पाने के लिए, किसी को छोड़ने की अनुमति नहीं है, वह अधिकार है सारे संसारों के रब के एक होने, उसी की इबादत एवं उसका कोई साझी न होने को स्वीकार करना, इन शब्दों के द्वारा कि ''मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है और उसका कोई साझी नहीं है, मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद उसके बंदे एवं उसके रसूल हैं, मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सभी रसूल सत्य हैं और मैं गवाही देता हूँ कि जन्नत सत्य है और जहन्नम सत्य है'' फिर इन शब्दों के अधिकार को पूरा करना।
इस्लाम को स्वीकार करने से किसी को न रोकना या किसी ऐसे काम का समर्थन न करना जिसका उद्देश्य इस्लामी आह्वान एवं अल्लाह के धर्म को फैलने से रोकना हो।
लोगों के अधिकारों का अतिक्रमण न करना, उनको नष्ट न करना या उनपर अत्याचार न करना।
सृष्टि या सृष्टियों से बुराई को रोकना। इसके लिए लोगों से अपने आपको दूर करना पड़े तो भी कर लेना।
कभी-कभी इंसान के पास बहुत सारे नेक काम नहीं होते हैं, परन्तु वह किसी को हानि नहीं पहुँचाता है या कोई ऐसा काम नहीं करता है जो उसके अपने आपके लिए या लोगों के लिए बुरा हो, अल्लाह के एक होने की गवाही देता है, तो उसके जहन्नम से नजात पाने की उम्मीद है।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''अल्लाह को क्या पड़ी है कि तुम्हें यातना दे, यदि तुम कृतज्ञ रहो तथा ईमान रखो और अल्लाह बड़ा गुणग्राही अति ज्ञानी है।'' [326] [सूरा अल-निसा : 147]
मनुष्यों को रैंक और दर्जा के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा। इस दुनिया दुनिया में उनके कर्मों से शुरू होकर, क़यामत होने तक, अनदेखी दुनिया के प्रकट होने एवं आख़िरत में हिसाब शुरू होने तक। क्योंकि कुछ समुदायों को अल्लाह आख़िरत में आज़माएगा, जैसा कि हदीस शरीफ में आया है।
संसारों का रब प्रत्येक व्यक्ति को उसके बुरे कर्मों के अनुसार दंड देता है। दंड या तो दुनिया में ही दे देता है या आख़िरत तक उसको टाल देता है। यह काम की गंभीरता, तौबा करने या न करने और अन्य सृष्टियों पर पड़ने वाले उसके प्रभाव अथवा उससे होने वाले नुक़सान पर निर्भर करता है। दरअसल अल्लाह बिगाड़ को पसंद नहीं करता।
पिछले समुदायों, जैसे कि नूह, हूद, सालेह और लूत -अलैहिमुस्सलाम- के समुदाय और फिरऔन आदि, जिन्होंने रसूलों को झुठलाया, अल्लाह ने उनके निंदनीय कर्मों तथा उनके द्वारा किए गए अत्याचार के कारण इस दुनिया में ही उनको दंडित कर दिया, क्योंकि उन्होंने न अपने आपको रोका, न अपनी बुराई से रुके, बल्कि उसमें आगे बढ़ते ही चले गए। हूद -अलैहिस्सलाम- के समुदाय ने धरती पर अहंकार किया, सालेह -अलैहिस्सलाम- के समुदाय ने ऊँटनी की हत्या की, लूत -अलैहिस्सलाम- का समुदाय निर्लज्जता पर डट गया, शोएब -अलैहिस्सलाम- का समुदाय बिगाड़, नाप-तौल में कमी करके लोगों के अधिकार मारने पर डट गया, फिरौन की जाति ने मूसा -अलैहिस्सलाम- की जाति पर अत्याचार किया और उनसे पहले नूह -अलैहिस्सलाम- का समुदाय रब की इबादत के साथ शिर्क करने पर अड़ा रहा।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''जो व्यक्ति अच्छा कर्म करेगा, तो वह अपने ही लाभ के लिए करेगा और जो बुरा कार्य करेगा, तो उसका दुष्परिणाम उसी पर होगा और आपका पालनहार बंदों पर तनिक भी अत्याचार करने वाला नहीं है।'' [327] [सूरा फ़ुस्सिलत: 46]
"तो हमने हर एक को उसके पाप के कारण पकड़ लिया। फिर उनमें से कुछ पर हमने पथराव करने वाली हवा भेजी, और उनमें से कुछ को चीख[ ने पकड़ लिया, और उनमें से कुछ को हमने धरती में धँसा दिया और उनमें से कुछ को हमने डुबो दिया। तथा अल्लाह ऐसा नहीं था कि उनपर अत्याचार करे, परंतु वे स्वयं अपने आपपर अत्याचार करते थे।" [328] [सूरा अल-अनकबूत: 40]