उदाहरण के तौर पर इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था और पूंजीवाद तथा समाजवाद के बीच एक सरल तुलना से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस्लाम ने यह संतुलन कैसे सुनिश्चित किया है।
स्वामित्व की स्वतंत्रता के संबंध में :
पूंजीवाद में : निजी संपत्ति ही सामान्य सिद्धांत है।
समाजवाद में : सार्वजनिक स्वामित्व ही सामान्य सिद्धांत है।
जबकि इस्लाम में : विभिन्न प्रकारों के स्वामित्व की अनुमति है :
सार्वजनिक स्वामित्व : यह सभी मुसलमानों के लिए सामान्य है। जैसे आबाद भूमि।
राज्य का स्वामित्व : वन और खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधन।
निजी संपत्ति : यह केवल निवेश कार्य के माध्यम से इस तरह से अर्जित की जाती है कि उससे सामान्य संतुलन को खतरा न हो।
आर्थिक स्वतंत्रता के संबंध में :
पूंजीवाद में : आर्थिक स्वतंत्रता असीमित है।
समाजवाद में : आर्थिक स्वतंत्रता पर पूर्ण कंट्रोल है।
इस्लाम में, आर्थिक स्वतंत्रता को एक सीमित दायरे में मान्यता प्राप्त है, जिसका प्रतिनिधित्व निम्न में होता है :
इस्लामी शिक्षा और समाज में इस्लामी अवधारणाओं के प्रसार के आधार पर आत्मा की गहराइयों से उत्पन्न होने वाली आंतरिक हदबंदी।
निष्पक्ष हदबंदी, जिसका प्रतिनिधित्व सीमित करने वाले क़ानूनों के द्वारा होता है, जो विशिष्ट कार्यों पर रोक लगाते हैं जैसे : धोखा, जुआ, सूदखोरी इत्यादि।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''ऐ ईमान वालो! कई-कई गुणा करके ब्याज न खाओ। तथा अल्लाह से डरो, ताकि तुम सफल हो।'' [191] [सूरा आल-ए-इमरान : 130]
''और तुम ब्याज पर जो (उधार) देते हो, ताकि वह लोगों के धनों में मिलकर अधिक हो जाए, तो वह अल्लाह के यहाँ अधिक नहीं होता। तथा तुम अल्लाह का चेहरा चाहते हुए जो कुछ ज़कात से देते हो, तो वही लोग कई गुना बढ़ाने वाले हैं।'' [192] [सूरा अल-रूम : 39]
''(ऐ नबी!) वे आपसे शराब और जुए के बारे में पूछते हैं। आप बता दें कि इन दोनों में बड़ा पाप है तथा लोगों के लिए कुछ लाभ हैं, और इन दोनों का पाप इनके लाभ से बड़ा है। तथा वे आपसे पूछते हैं कि क्या चीज़ ख़र्च करें। (उनसे) कह दीजिए जो आवश्यकता से अधिक हो। इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए आयतों को स्पष्ट करता है, ताकि तुम सोच-विचार करो।'' [193] [सूरा अल-बक़रा : 219]
पूंजीवाद ने मनुष्य के लिए एक स्वतंत्र पद्धति तैयार किया है, और वह उसी के अनुसार चलने का आह्वान करता है। पूंजीवाद का यह दावा है कि यह उदार पद्धति है, जो इंसान को विशुद्ध सुख की ओर ले जाएगा। लेकिन मनुष्य अंततः खुद को एक वर्गों में बटे हुए समाज में गोता लगाता हुआ पाता है, जहाँ या तो दूसरों पर अत्याचार पर आधारित बहुत ज़्यादा मालदारी होती है या नैतिक रूप से प्रतिबद्ध लोगों के लिए घोर गरीबी होती है।
साम्यवाद आया और सभी वर्गों को निरस्त कर दिया तथा अधिक ठोस सिद्धांत बनाने की कोशिश की, लेकिन इसने ऐसे समाजों का निर्माण किया, जो दूसरों की तुलना में अधिक गरीब, अधिक दुखी और अधिक उपद्रवी हैं।
मगर इस्लाम ने संतुलन को सुनिश्चित किया। मुस्लिम समुदाय एक संतुलित समुदाय है। इसने मानवता को एक महान व्यवस्था प्रदान की, जिसकी गवाही खुद इस्लाम के दुश्मनों ने भी दी है। फिर भी कुछ मुसलमान इस्लाम के महान मूल्यों का पालन करने में विफल हैं।