इस्लाम का एक सामान्य नियम यह है कि सभी प्रकार के धन अल्लाह के हैं और लोग इसके प्रभारी मात्र हैं और धन को केवल अमीरों के बीच घूमते रहना नहीं चाहिए। इस्लाम ने ज़कात के रास्ते से फ़क़ीरों एवं मिस्कीनों के लिए एक तय प्रतिशत ख़र्च किए बिना धन इकट्ठा करने से मना किया है। ज़कात एक इबादत है जो इंसान को ख़र्च करने एवं देने के गुणों को अपनाने तथा कंजूसी एवं बखीली की भावनाओं से दूर रहने में मदद करती है।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''अल्लाह ने जो कुछ भी इन बस्तियों वालों (के धन) से अपने रसूल पर लौटाया, तो वह अल्लाह के लिए और रसूल के लिए और (रसूल के) रिश्तेदारों, अनाथों, निर्धनों तथा यात्री के लिए है; ताकि वह (धन) तुम्हारे धनवानों ही के बीच चक्कर लगाता न रह जाए, और रसूल तुम्हें जो कुछ दें, उसे ले लो और जिस चीज़ से रोक दें, उससे रुक जाओ। तथा अल्लाह से डरते रहो। निश्चय अल्लाह बहुत कड़ी यातना देने वाला है।'' [184] [सूरा अल-हश्र : 7]
''अल्लाह तथा उसके रसूल पर ईमान लाओ और उसमें से खर्च करो जिसमें उसने तुम्हें उत्तराधिकारी बनाया है। फिर तुममें से जो लोग ईमान लाए और उन्होंने ख़र्च किए, उनके लिए बहुत बड़ा प्रतिफल है।'' [185] [सूरा अल-हदीद : 7]
''जो लोग सोना तथा चाँदी जमा करते हैं और अल्लाह के रास्ते में ख़र्च नहीं करते हैं, तो उन्हें कष्टदायक यातना की ख़ुशख़बरी सुना दीजिए।'' [186] [सूरा अल-तौबा : 34]
इसी तरह इस्लाम हर सक्षम व्यक्ति से काम करने का आग्रह करता है।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''वही है जिसने तुम्हारे लिए धरती को वशीभूत कर दिया, अतः उसके रास्तों में चलो-फिरो तथा उसकी प्रदान की हुई रोज़ी में से खाओ। और उसी की ओर तुम्हें फिर जीवित हो कर जाना है।'' [187] [सूरा अल-मुल्क : 15]
इस्लाम वास्तव में अमल का धर्म है। अल्लाह पाक ने हमें भरोसा करने का आदेश दिया है, न कि साधनों को अपनाना छोड़कर सुस्त पड़े रहने का। भरोसे के लिए दृढ़ संकल्प, क्षमता का प्रयोग करने, साधनों को अपनाने और फिर उसके बाद अल्लाह के निर्णय और फ़ैस़ला के प्रति समर्पण की आवश्यकता होती है।
अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस व्यक्ति से फ़रमाया, जो अपनी ऊँटनी को अल्लाह पर भरोसा करते हुए खुली छोड़ देना चाहता था :
''उसे बाँध दो, फिर अल्लाह पर भरोसा करो।'' [188] [सहीह तिर्मिज़ी]
इस प्रकार, एक मुसलमान आवश्यक संतुलन हासिल करने वाला हो सकता है।
इस्लाम ने फिजूलखर्ची को हराम किया है और जीवन स्तर को नियमित करने के लिए व्यक्तियों का स्तर बढ़ाया है, इस तरह। धनवान होने की इस्लामी अवधारणा केवल आवश्यक जरूरतों की पूर्ति नहीं है, बल्कि एक व्यक्ति के पास इतना हो कि उससे वह खाए, पहने, घर बनाए, शादी करे, हज करे और दान भी दे।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''तथा वे लोग कि जब खर्च करते हैं, तो न फ़िज़ूल-खर्ची करते है और न ख़र्च करने में तंगी करते हैं, और (उनका ख़र्च) इसके बीच में मध्यम होता है।'' [189] [सूरा अल-फ़ुरक़ान : 67]
इस्लाम की नजर में गरीब वह है जो अपने शहर के जीवन स्तर के अनुसार अपनी ज़रूरतें पूरी न कर सके। अब यह जीवन स्तर जिसका जितना फैला हुआ होगा, गरीबी का वास्तविक अर्थ भी उतना बड़ा होगा। उदाहरण स्वरूप, यदि किसी शहर या देश में आम तौर पर हर परिवार के पास एक अलग घर है, अब अगर किसी विशेष परिवार के पास अलग घर नहीं है, तो उसे ग़रीबी का एक प्रकार माना जाएगा। इस तरह, संतुलन अर्थात हर व्यक्ति (मुस्लिम हो या ज़िम्मी) के अमीर होने का मापदंड भी उस समय के समाज की संभावनाओं के अनुसार तय किया जाएगा।
इस्लाम समाज के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं को पूरा करता है और यह सामाजिक गारंटी के द्वारा होता है। एक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है और उसकी देख-रेख उसपर अनिवार्य है। इस प्रकार मुसलमानों पर वाजिब है कि उनके बीच कोई ज़रूरतमंद न रहे।
अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :
"एक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है। इसलिए न वो उसपर ज़ुल्म करे और न ही उसे ज़ुल्म के हवाले करे। जो आदमी अपने भाई की ज़रूरत पूरी करने में लगा रहता है, अल्लाह उसकी मुराद पूरी करने में लगा रहता है, और जो आदमी किसी मुसलमान की मुसीबत दूर करता है, अल्लाह क़यामत के दिन उसकी मुसीबत दूर करेगा, और जो आदमी मुसलमान का दोष छुपाएगा, क़यामत के दिन अल्लाह उसके दोषों को छुपाएगा।" [190] [सहीह बुख़ारी]