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धर्म को राज्य से अलग क्यों न किया जाए और क्यों न इनसान की राय ही संदर्भ (reference) हो, जैसा कि पश्चिम में है?

पश्चिमी अनुभव मध्य युग में लोगों की क्षमताओं और दिमागों पर चर्च और राज्य के प्रभुत्व और गठबंधन की प्रतिक्रिया के रूप में आया। इस्लामिक व्यवस्था की व्यवहारिकता और तर्क को देखते हुए इस्लामी जगत ने कभी भी इस समस्या का सामना नहीं किया है।

वास्तव में, हमें एक दृढ़ दिव्य नियम की आवश्यकता है, जो मनुष्य के लिए उसकी सभी स्थितियों में उपयुक्त हो। हमें ऐसे संदर्भों की आवश्यकता नहीं है, जो मानवीय ख़्वाहिशों, इच्छाओं और मिजाज के अनुसार हों! जैसा कि सूदखोरी, समलैंगिकता और अन्य चीज़ों को वैध ठहराने में होता है। इसी तरह हमें ऐसे संदर्भों की भी आवश्यकता नहीं है, जो ताक़तवरों की तरफ से लिखे जाएं, ताकि कमज़ोरों के लिए बोझ बन जाएं, जैसा कि पूंजीवादी व्यवस्था में होता है। हमें साम्यवाद भी नहीं चाहिए, जो संपत्ति के मालिक होने की इच्छा की प्रकृति का विरोध करता है।

क्या इस्लाम लोकतंत्र को मान्यता देता है?

मुसलमानों के पास लोकतंत्र से बेहतर व्यवस्था है, जिसे शूरा व्यवस्था (विचार विमर्श पर आधारित व्यवस्था) कहते हैं।

लोकतंत्र : उदाहरण के तौर पर परिवार के संबंध में एक महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय, जब आप राय देने वाले व्यक्ति के अनुभव, उम्र या ज्ञान की परवाह किए बिना अपने परिवार के सभी सदस्यों की राय को ध्यान में रखते हैं और मकतब के बच्चे से लेकर बुद्धिमान दादाजी तक सभी की राय को समान मानते हैं, इसे लोकतंत्र कहा जाता है।

शूरा व्यवस्था (विचार विमर्श पर आधारित व्यवस्था) : यह बड़ी उम्र, बड़े स्थान एवं अनुभव वाले से इस बात पर मश्वरा करना है कि क्या सही है और क्या गलत?

अंतर बहुत स्पष्ट है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमी कुछ देशों में ऐसे कामों की अनुमति देना है, जो अपने आप में प्रकृति, धर्म, रीति रिवाज एवं परंपराओं के ख़िलाफ़ हैं। मसलन सूदखोरी और समलैंगिकता आदि घिनौने कामों की अनुमति देना। ऐसा केवल वोट में बहुमत हासिल करने के कारण किया जाता है। यदि अधिकांश वोट नैतिक पतन का आह्वान करे, तो लोकतंत्र भी अनैतिक समाजों के निर्माण में योगदान करता है।

इस्लामिक शूरा व्यवस्था और पश्चिमी लोकतंत्र के बीच अंतर क़ानूनसाज़ी में संप्रभुता के स्रोत के साथ खास है। लोकतंत्र में क़ानूनसाज़ी की संप्रभुता जनता एवं समुदाय से शुरू होती है, जबकि इस्लामी शूरा व्यवस्था में क़ानूनसाज़ी का मुख्य स्रोत अल्लाह के आदेश हैं, जो शरीयत की शक्ल में हमारे सामने मौजूद हैं। यह किसी मनुष्य का निर्माण नहीं है। इनसान को अपने क़ानूनों की बुनियाद इसी अल्लाह की शरीयत पर रखनी होगी। इसी प्रकार जिस संबंध में कोई आदेश नहीं आया है, उसमें उसे इजतिहाद का अधिकार है, मगर शर्त यह है कि वह इसी शरई हलाल व हराम के अंतर्गत हो।

इस्लामी शरीयत एक अनोखा धार्मिक क़ानून है, जो तर्क के विरूद्ध नहीं है, तो हुदूद क्यों?

पृथ्वी पर उपद्रव का इरादा रखने वालों को रोकने और दंडित करने के लिए सीमाएँ निर्धारित की गई हैं। इसकी दलील यह है कि भूख और अत्यधिक आवश्यकता के कारण चोरी करने या ग़लती से हत्या करने के मामलों में इसे लागू नहीं किया जाता। हुदूद नाबालिग, पागल या मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति पर लागू नहीं होती हैं। यह मुख्य रूप से समाज की रक्षा के लिए हैं। जहाँ तक इसके सख़्त होने की बात है, तो यह भी समाज के हित में है। इससे समाज के लोगों को ख़ुश होना चाहिए। इन (दंडों) का अस्तित्व लोगों के लिए रहमत है, जिससे उनको सुरक्षा प्राप्त होती है। केवल अपराधी, डाकू और भ्रष्ट लोग ही इन दंडों पर आपत्ति करेंगे, क्योंकि उनको अपनी जान का ख़तरा है। इनमें से कुछ हुदूद तो मानव निर्मित क़ानूनों में भी मौजूद हैं, जैसा कि मृत्यु दंड इत्यादि।

जो लोग इन दंडों के बारे में बुरा-भला कहते हैं, वे अपराधी के हित के बारे में सोचते हैं और समाज के हित को भूल जाते हैं। वे अपराधी पर दया करते हैं और पीड़ित की उपेक्षा करते हैं। वे सज़ा को कठोर कहते हैं और अपराध की गंभीरता की उपेक्षा करते हैं।

यदि वे दंड के साथ अपराध की तुलना करें, तो इन शर्ई दंडों में न्याय पर आधारित पाएंगे एवं उनको इन दंडों का अपराधों के समान होने का यक़ीन हो जाएगा। उदाहरण स्वरूप, यदि चोर के काम को देखें, वह अंधेरे में छुप-छुपाकर चलता है, ताला तोड़ता है, हथियार लहराता है और अमन से रह रहे लोगों को डराता है। वह घरों के सम्मान को पामाल करता है, जो मुक़ाबला करता है उसकी हत्या करने पर उतर आता है और अधिकांश समय में हत्या का अपराध कर डालता है, ताकि अपनी चोरी पूरी कर सके एवं उसके बाद आराम से भाग सके। वह बिना किसी अंतर के हत्या करता है। जब हम चोर के इन काले करतूतों पर विचार करते हैं, तो शरीयत के दंडों की सख़्ती में छुपी मसलहत को जान जाते हैं।

यही स्थिति दूसरे दंडों की है। हमें अपराधों एवं उनमें जो ख़तरे, नुक़सान, अत्याचार एवं आक्रामकता हैं, उनमें विचार करना चाहिए, ताकि हमें विश्वास हो जाए कि अल्लाह ने हर अपराध के लिए उचित दंड निर्धारित किया है और बदला भी कर्म की कोटि का ही रखा है।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''और आपका रब किसी पर अत्याचार नहीं करता।'' [180] ****

इस्लाम ने प्रतिरोधक दंड निर्धारित करने से पहले शिक्षा और बचाव के ऐसे तरीके पेश किए हैं, जो अपराधियों को अपराध से दूर रखने के लिए पर्याप्त हैं, यदि उनके पास समझने वाले दिल एवं दया करने वाली आत्माएँ हों। फिर शरीयत उस समय तक दंड लागू नहीं करती है, जब तक यह गारंटी नहीं मिल जाती है कि व्यक्ति विशेष ने जो अपराध किया है, वह बिना किसी औचित्य और बिना किसी मजबूरी के किया है। इन सब के बावजूद उसका अपराध करना उसके सबसे अलग होने और सज़ा का हक़दार होने का प्रमाण है।

इस्लाम ने न्याय के साथ दौलत को बांटने का काम किया है और अमीरों के धनों में ग़रीबों के लिए एक निर्धारित भाग रखा है। पत्नी एवं रिश्तेदारों पर खर्च को वाजिब किया है। मेहमान का सम्मान एवं पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया है। राज्य को ज़िम्मेदार बनाया है कि वह अपने लोगों की तमाम ज़रूरतें जैसा कि खाने, पहनने और रहने की ज़रुरत आदि इस तरह पूरी करे कि लोग एक सम्माननीय जीवन गुज़ार सकें। इसी प्रकार राज्य अपने नागरिकों में से सशक्त व्यक्तियों के लिए सम्माननीय काम के दरवाज़े खोले, हर शक्ति वाले को उसकी शक्ति के अनुसार काम करने का अवसर प्रदान करे और बराबर के अवसर सभी को उपलब्ध कराए।

मान लें कि एक व्यक्ति अपने घर लौटे और पाए कि किसी व्यक्ति के हाथों चोरी के उद्देश्य से या प्रतिशोध के तौर पर उसके परिवार के सदस्यों की हत्या हो गई है। फिर सरकारी अधिकारी आएँ और अपराधी को गिरफ्तार करके एक निश्चित अवधि के लिए -चाहे वह लंबी हो या छोटी- कारावास में बंद कर दे। वह वहां खाए और जेल में मौजूद उन सेवाओं का लाभ उठाए, जिनको उपलब्ध कराने में खुद पीड़ित व्यक्ति स्वयं कर चुकाकर अपना योगदान दे रहा होता है।

तो ऐसी स्थिति में उस पीड़ित व्यक्ति की क्या प्रतिक्रिया होगी? वह अंत में या तो पागल हो जाएगा या फिर अपना दर्द भूलने के लिए नशे का आदी हो जाएगा। यदि यही स्थिति किसी ऐसे देश में उत्पन्न हो, जहाँ इस्लामी शरीयत लागू हो, तो अधिकारी अलग तरह से कार्रवाई करेंगे। इस अपराधी को पीड़ितों के परिवार के पास लाया जाएगा, ताकि वे उस अपराधी के संबंध में निर्णय लें कि उसके साथ क्या करना है? वे या तो प्रतिषोध लें, जो बिल्कुल न्याय है या दियत पर राज़ी हो जाएं, जो कि एक आज़ाद व्यक्ति की हत्या की क़ीमत है या फिर क्षमा कर दें और क्षमा कर देना ही उत्तम है।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''और यदि तुम माफ़ करो तथा दरगुज़र करो और क्षमा कर दो, तो निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।'' [181] [सूरा अल-तग़ाबुन : 14]

इस्लामी शरीयत का हर अध्ययन करने वाला इस तथ्य को जानता है कि हुदूद प्रतिषोध या हुदूद को लागू करने की इच्छा के आधार पर किए जाने वाले कार्य से अधिक एक निवारक शैक्षिक पद्धति है। उदाहरण स्वरूप :

सज़ा देने से पहले सावधान एवं सतर्क रहना, बहाने तलाशना और संदेह को दूर करना आवश्यक है। क्योंकि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की हदीस है : ''शरई दंडों को संदेहों के द्वारा टाल दिया करो।''

जिसने ग़लती की और अल्लाह ने उसको छुपा लिया, लोगों के सामने उसके गुनाह को ज़ाहिर नहीं किया, उसपर कोई दंड नहीं है। यह इस्लामी शिक्षा नहीं है कि लोगों की गुप्त बोतों के पीछे पड़ा जाए एवं उनकी जासूसी की जाए।

पीड़ित का अपराधी को माफ़ कर देना दंड को रोक देता है।

''फिर जिसे उसके भाई की ओर से कुछ भी क्षमा[96] कर दिया जाए, तो ऐसे में सामान्य रीति के अनुसार (क़ातिल का) अनुसरण करना चाहिए और भले तरीक़े से उसके पास पहुँचा देना चाहिए। यह तुम्हारे पालनहार की ओर से एक प्रकार की सुविधा तथा एक दया है।'' [182] [सूरा अल-बक़रा : 178]

यह अनिवार्य है कि अपराधी ने अपनी इच्छा से अपराध किया हो और उसे मजबूर न किया गया हो। मजबूर पर हद लागू नहीं होगी। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है :

''मेरी उम्मत के लिए ग़लती से, याद न रहने के कारण और मजबूरी में किए गए गुनाहों को माफ़ कर दिया गया है।'' [183] [यह हदीस सहीह है।]

शर्ई दंड जैसा कि हत्यारे की हत्या, व्यभिचारी को संगसार करना, चोर का हाथ काटना इत्यादि, जिसे क्रूरता और बर्बरता बताया जाता है, इसे सख़्त करने की हिकमत यह है कि इन अपराधों को बिगाड़ की जननी माना जाता है। इनमें से हर अपराध पांच प्रमुख हितों (धर्म, जान, माल, वंश, बुद्धि) में से एक या अधिक पर हमला करता है, जिनकी सुरक्षा एवं हिफ़ाज़त की अनिवार्यता पर सभी शरीयतों एवं मानव निर्मित क़ानूनों ने हर युग में सहमति जताई है। क्योंकि इनके बिना जीवन सुचारु रूप से नहीं चल सकता है।

इसी कारण से मुनासिब है कि इनमें से किसी अपराध को अंजाम देने वाले पर सख़्त दंड लागू किया जाए, ताकि उसके लिए फटकार एवं दूसरे के लिए रोक हो।

इस्लामी तरीक़ा को समग्र रूप से लिया जाना ज़रूरी है और इस्लामी हुदूद को इस्लाम की शिक्षाओं से अलग करके लागू नहीं किया जा सकता है, विशेषकर जो आर्थिक और सामाजिक तरीक़े से संबंधित है। धर्म की सही शिक्षाओं से लोगों की दूरी ही कुछ लोगों को अपराध करने के लिए प्रेरित करती है। यही वह बड़े अपराध हैं, जो इस्लामी क़ानून को लागू न करने वाले कई देशों को तबाह कर रहे हैं, हालांकि उनके पास सभी क्षमताएँ एवं संभावनाएँ उपलब्ध हैं, जो उन्हें तकनीकी प्रगति प्रदान करती हैं।

पवित्र क़ुरआन में आयतों की संख्या 6348 है, जबकि हुदूद की आयतों की संख्या दस से अधिक नहीं है, जो तत्वज्ञ एवं हर चीज़ की ख़बर रखने वाले अल्लाह की तरफ से बड़ी हिकमत के साथ उतारी गई हैं। क्या कोई व्यक्ति केवल इन दस आयतों में छिपी हिकमत से अज्ञानता के कारण इस महान पद्धति को पढ़ने एवं उसे लागू करने के आनंद लेने का अवसर खो देगा, जिसे बहुत-से गैर-मुस्लिम अद्वितीय मानते हैं।