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इस्लाम की विचारधारा :

क्या इस्लाम में पुरोहित (जिन्हें पवित्र समझा जाए कि उनसे गलती नहीं हो सकती) एवं नेक लोग पाए जाते हैं और क्या मुसलमान पैगंबर मुहम्मद के साथियों को पवित्र मानते हैं (इस हद तक कि उनको मध्यस्थ बना लें)?

मुसलमान नेक लोगों और रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के साथियों के मार्ग पर चलते हैं, उनसे मुहब्बत करते हैं, उन्हीं ही तरह नेक बनने की कोशिश करते हैं और उन लोगों की तरह ही एक अल्लाह की इबादत करते हैं। परन्तु वे उनको पवित्र नहीं मानते हैं और न ही अपने एवं अल्लाह के बीच उनमें से किसी को मध्यस्थ बनाते हैं।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''तथा हममें से कोई किसी को अल्लाह के सिवा रब न बनाए।'' [168] [सूरा आल-ए-इमरान : 64]

शिया और सुन्नी में क्या अंतर है?

मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- न सुन्नी थे और न शिया। आप शुद्ध मुस्लिम थे। इसी तरह ईसा -अलैहिस्सलाम- न कैथोलिक थे और न और कुछ। दोनों बिना मध्यस्थ के एक अल्लाह के बन्दे थे। ईसा ने स्वयं की इबादत की और न अपनी माँ की। इसी तरह न मुहम्मद ने अपने आपकी इबादत की और न अपनी बेटी की, न दामाद की।

राजनैतिक समस्याओं, सत्य धर्म से दूरी या दूसरे कारणों से इतने सारे गुट प्रकट हो गए हैं। इनका सरल, स्पष्ट एवं सत्य धर्म के साथ कोई लेना-देना नहीं है। बहरहाल, शुब्द ''सुन्नत'' का अर्थ पूरी तरह से पैगंबर की कार्यप्रणाली का पालन करना है। जबकि शब्द ''शिया'' लोगों का एक गुट है, जो आम मुसलमानों के मार्ग से अलग हो गए हैं। इस तरह, सुन्नी वो हैं जो रसूल की कार्यप्रणाली का पालन करते हैं और वही सामान्य रूप से सही दृष्टिकोण का पालन करते हैं, जबकि शिया एक संप्रदाय हैं, जो इस्लाम के सही दृष्टिकोण से भटक गया है।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''जिन लोगों ने अपने धर्म में विभेद किया और कई समुदाय हो गये, (हे नबी!) आपका उनसे कोई संबंध नहीं, उनका निर्णय अल्लाह को करना है, फिर वह उन्हें बताएगा कि वे क्या कर रहे थे।'' [169] [सूरा अल-अनआम : 159]

क्या इस्लाम में इमाम, ईसाई धर्म में पादरी की तरह है?

इमाम का अर्थ वह व्यक्ति है, जो लोगों को नमाज़ पढ़ाए, उनकी देख-भाल करे या उनका नेतृत्व करे। यह कुछ खास लोगों तक सीमित धार्मिक पद नहीं है। इस्लाम में कोई जातिवाद या पुरोहितवाद नहीं है। इस्लाम धर्म सभी के लिए है। लोग अल्लाह के सामने कंघे के दांतों की तरह समान हैं। एक अरब या एक गैर-अरब के बीच कोई अंतर नहीं है। अगर है भी तो धर्मपरायणता और अच्छे कामों की बुनियाद पर। नमाज़ पढ़ाने का सबसे ज़्यादा हक़दार वह व्यक्ति है, जिसे कुरआन ज्यादा और अच्छा याद हो और जो नमाज़ से संबंधित नियमों को सबसे अधिक जानने वाला है। मुसलमानों के निकट इमाम का जो भी महत्व हो, वह किसी भी स्थिति में स्वीकारोक्ति नहीं सुनता है और पापों को क्षमा नहीं करता है, जैसा कि पादरी की स्थिति है।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''उन्होंने अपने विद्वानों और धर्माचारियों (संतों) को अल्लाह के सिवा पूज्य बना लिया तथा मरयम के पुत्र मसीह को, जबकि उन्हें जो आदेश दिया गया था, वह इसके सिवा कुछ न था कि एक अल्लाह की इबादत (वंदना) करें। कोई पूज्य नहीं है, परन्तु वही। वह उससे पवित्र है, जिसे उसका साझी बना रहे हैं।'' [170] [सूरा अल-तौबा : 31]

इस्लाम इस बात की पुष्टि करता है कि नबी अल्लाह का जो संदेश पहुँचते हैं, उसमें उनसे कोई त्रुटि नहीं होती। जबकि कोई पुजारी या संत न तो ग़लती से पाक होता है और न उसके पास वह्य आती है। इस्लाम में गैर-अल्लाह से मदद माँगने के लिए उसकी शरण में जाना बिल्कुल हराम है। चाहे यह मदद नबियों ही से क्यों न माँगी जाए। जिसके हाथ में कुछ नहीं है, वह दूसरे को कुछ दे नहीं सकता है। इंसान अल्लाह के अलावा किसी दूसरे से कैसे मदद माँग सकता है, जबकि वह दूसरा अपने आपकी मदद नहीं कर सकता है। अल्लाह से माँगना सम्मान है, जबकि उसके अलावा किसी और से माँगना अपमान है। क्या राजा एवं प्रजा के बीच माँगने में बराबरी करना तार्किक है। तर्क और बुद्धि इस विचार का पूरी तरह से खंडन करती है। पूज्य के अस्तित्व एवं उसके हर चीज़ पर सामर्थ्य होने के ईमान के साथ गैर-अल्लाह से माँगना फ़िजूल है, शिर्क है, इस्लाम के विरूद्ध है और सबसे बड़ा पाप है।

अल्लाह तआला रसूल की ज़ुबानी कहता है :

''आप कह दें कि मैं तो अपने लाभ और हानि का मालिक नहीं हूँ, परन्तु जो अल्लाह चाहे, (वही होता है)। यदि मैं ग़ैब (परोक्ष) का ज्ञान रखता, तो मैं बहुत-सा लाभ प्राप्त कर लेता। मैं तो केवल उन लोगों को सावधान करने तथा शुभ सूचना देने वाला हूँ, जो ईमान (विश्वास) रखते हैं।'' [171] [सूरा अल-आराफ़ : 188]

[सूरा अल-मुल्क: 3] और एक अन्य स्थान में फ़रमाया :

''आप कह दे : मैं तो तुम्हारे जैसा ही एक मनुष्य हूँ, मेरी ओर प्रकाशना (वह़्य) की जाती है कि तुम्हारा पूज्य केवल एक ही पूज्य है। अतः जो कोई अपने पालनहार से मिलने की आशा रखता हो, उसके लिए आवश्यक है कि वह अच्छे कर्म करे और अपने पालनहार की इबादत में किसी को साझी न बनाए।'' [172] [सूरा अल-कह्फ़ : 110]

"और मस्जिदें अल्लाह ही के लिए हैं। अतः अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य को कदाचित न पुकारो।” [173] [सूरा अल-जिन्न : 18]