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क्या इस्लाम आत्मघाती हमलों की अनुमति देता है और उनके बदले में जन्नत में हूर मिलने की बात करता है?

यह अतार्किक है कि जीवन देने वाला, जिसे जीवन दिया गया है, उसे आदेश दे कि वह अपना या किसी निर्दोष का जीवन बिना किसी अपराध के ले ले। वह तो कहता है : ''अपने आपकी हत्या मत करो।'' [166] इसके अलावा और भी आयतें हैं, जो बिना किसी कारण, मसलन क़िसास एवं आत्म रक्षा आदि के, किसी की हत्या से रोकती हैं। केवल हूर प्राप्त करने की संकीर्ण सोच में जन्नत की नेमतों को सीमित नहीं करना चाहिए। जन्नत में ऐसी ऐसी नेमतें हैं, जिन्हें न किसी आँख ने देखा है, जिनके बारे न किसी कान ने सुना है और न जिनका ख़याल किसी मनुष्य के दिल में आया है। [सूरा अन-निसा : 29]

आज के युवाओं का आर्थिक परिस्थितियों से दोचार होना और उन भौतिक चीजों को प्राप्त करने में असमर्थ होना, जो उन्हें शादी करने में मदद करें, उन्हें इन घृणित कृत्यों के प्रचारकों के लिए आसान शिकार बना देता है। खासतौर पर किसी लत के शिकार और मानसिक बीमारी से ग्रस्त लोग। यदि इन घृणित कृत्यों के प्रचारक सच्चे होते, तो नौजवानों को इस मिशन पर भेजने से पहले खुद अपने आपसे इसकी शुरूआत करते।

क्या इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला है?

शब्द सैफ़ (तलवार) पवित्र क़ुरआन में एक बार भी नहीं आया है। वो देश जहाँ इस्लामी इतिहास ने जंगें नहीं देखीं, वहीं आज दुनिया के अधिकांश मुसलमान रहते हैं। उदाहरण के तौर पर इंडोनेशिया, भारत और चीन आदि को ले सकते हैं। इस्लाम के तलवार के ज़ोर से न फैलने का प्रमाण मुसलमानों द्वारा जीते गए देशों में आज तक ईसाइयों, हिंदुओं और अन्य लोगों का मौजूद रहना है। जबकि जिन देशों पर गैर-मुस्लिमों ने विनाशकारी युद्धों के द्वारा क़ब्जा किया और लोगों को ज़बरदस्ती अपना धर्म अपनाने पर मजबूर किया, उनमें मुसलमानों की संख्या बहुत कम है। आप सलीबी जंगों का इतिहास उठाकर देख सकते हैं।

जिनेवा विश्वविद्यालय के डाइरेक्टर एडौर्ड मोंटे ने एक व्याख्यान में कहा है : ''इस्लाम एक तेजी से फैलने वाला धर्म है, जो संगठित केंद्रों द्वारा दिए गए प्रोत्साहन के बिना अपने आप फैल रहा है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि हर मुसलमान स्वभाव से एक मिशनरी है। एक मुसलमान विश्वास में मजबूत होता है और उसके विश्वास की तीव्रता उसके दिल और दिमाग पर हावी हो जाती है। इस्लाम का यह गुण किसी और धर्म में नहीं है। इस कारण से, आप देखते हैं कि ईमान के जोश से भरपूर मुसलमान जहाँ भी जाता है और जहाँ भी रुकता है, अपने धर्म का प्रचार करता है। वह जिस बुतपरस्त से भी मिलता है, उस तक ईमान का मज़बूत वायरस ट्रान्सफर कर देता है। आस्था के अलावा, इस्लाम सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुकूल है। इस्लाम के पास माहौल के अनुकूलन होने और इस मजबूत धर्म की आवश्यकता के अनुसार माहौल को अनुकूलित करने की अद्भुत क्षमता है।'' ''अल-हदीक़ह मजमुअह अदब बारिअ व हिकमह बलीग़ह'', सुलैमान बिन सालेह अल-ख़राशी