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सच्चे धर्म का प्रचार :

जिहाद क्या है?

जिहाद का अर्थ है : गुनाहों से बचने के लिए अपनी आत्मा से लड़ना। गर्भावस्था का दर्द सहने के लिए गर्भावस्था में मां का संघर्ष भी जिहाद है। एक छात्र का पढ़ाई में मेहनत करना भी जिहाद है। अपने धन, सम्मान एवं धर्म की रक्षा की प्रयास भी जिहाद है। यहाँ तक कि इबादतों में धैर्य रखना जैसे कि रोज़ा रखना एवं समय पर नमाज़ पढ़ना भी जिहाद के प्रकारों में से माना जाता है।

मालूम हुआ कि जिहाद का अर्थ मासूम एवं संधि के साथ रहने वाले गैर-मुस्लिमों की हत्या करना नहीं है, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं।

इस्लाम जीवन का सम्मान करता है। उसकी नज़र में संधि के साथ रहने वाले लोगों और आम शहरियों को मारना सही नहीं है। इसी तरह युद्ध के समय भी संपत्तियों, बच्चों एवं महिलाओं की रक्षा करना वाजिब है। मारे जाने वालों की शक्लों को बिगाड़ना या उनका मुस़ला करना (हाथ, पैर, नाक, कान काटना या आँख फोड़ना) जायज़ नहीं है। यह इस्लामी चरित्र नहीं है।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों से अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के विषय में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला। निश्चय अल्लाह न्याय करने वालों से प्रेम करता है। अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मैत्री रखने से रोकता है, जिन्होंने तुमसे धर्म के विषय में युद्ध किया तथा तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला और तुम्हें निकालने में एक-दूसरे की सहायता की। और जो उनसे मैत्री करेगा, तो वही लोग अत्याचारी हैं।'' [159] क़ुरआन करीम मसीह और मूसा के समुदायों में से उनके ज़माना के एकेश्वरवादी लोगों की सराहना करता है।

''इसी कारण, हमने बनी इसराईल पर लिख दिया कि निःसंदेह जिसने किसी प्राणी की किसी प्राणी के खून (के बदले) अथवा धरती में विद्रोह के बिना हत्या कर दी, तो मानो उसने सारे इनसानों की हत्या कर दी, और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, तो मानो उसने सारे इनसानों को जीवन प्रदान किया। तथा निःसंदेह उनके पास हमारे रसूल स्पष्ट प्रमाण लेकर आए। फिर निःसंदेह उनमें से बहुत से लोग उसके बाद भी धरती में निश्चय सीमा से आगे बढ़ने वाले हैं।'' [160] [सूरा अल- माइदा : 32]

गैर-मुस्लिम इन चारों में से एक होगा :

मुस्तामिन यानी सुरक्षा प्राप्त करके रहने वाला : ऐसा ग़ैर-मुस्लिम जिसे सुरक्षा प्रदान की गई हो।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''और यदि मुश्रिकों में से कोई तुमसे शरण माँगे, तो उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुने। फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान तक पहुँचा दो। यह इसलिए कि निःसंदेह वे ऐसे लोग हैं, जो ज्ञान नहीं रखते।'' [161] [सूरा अल-तौबा : 6]

मुआहद यानी संधि के आधार पर रहने वाला : ऐसा ग़ैर-मुस्लिम जिसके साथ मुसलमानों ने लड़ाई न करने की संधि कर रखी हो।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''तो यदि वे अपनी शपथ को अपना वचन देने के पश्चात तोड़ दें, और तुम्हारे धर्म की निंदा करें, तो कुफ़्र के प्रमुखों से युद्ध करो। क्योंकि उनकी शपथों का कोई विश्वास नहीं, ताकि वे (अत्याचार से) रुक जाएँ।'' [162] [सूरा अल-तौबा : 12]

ज़िम्मी : ज़िम्मा वचन को कहते हैं। ज़िम्मा वाला अर्थात ऐसा गैर-मुस्लि जिसने मुसलमानों से इस बात पर समझौता कर रखा हो कि वह अपने धर्म को मानने एवं शांति एवं सुरक्षा प्राप्त करने के बदले कुछ निर्धारित शर्तों के पालन करने के साथ टैक्स अदा करेंगा। यह उनकी क्षमता के अनुसार भुगतान की जाने वाली एक छोटी-सी राशि है, जो केवल सक्षम व्यक्ति से लिया जाता है न कि दूसरों से। सक्षम व्यक्ति से मुराद स्वतंत्र वयस्क पुरुष है। महिलाओं, बच्चों और बुद्धि न रखने वालों को इससे अलग रखा गया है। कुरआन में आए हुए शब्द ''स़ाग़िरून'' का अर्थ है अल्लाह के क़ानून के सामने झुके हुए। जबकि आज जो लाखों लोग टैक्स अदा करते हैं, उसमें सभी सदस्य शामिल होते हैं, राशि भी बहुत बड़ी होती है। यह टैक्स हुकुमत द्वारा उनकी देख-भाल किए जाने के बदले में अदा किया जाता है। लाग इस मानव निर्मित क़ानून के सामने भी झुके हुए हैं।

अल्लाह तआला ने कहा है :

"(ऐ ईमान वालो!) उन किताब वालों से युद्ध करो, जो न अल्लाह पर ईमान रखते हैं और न अंतिम दिन (क़ियामत) पर, और न उसे हराम समझते हैं, जिसे अल्लाह और उसके रसूल ने हराम (वर्जित) किया है और न सत्धर्म को अपनाते हैं, यहाँ तक कि वे अपमानित होकर अपने हाथ से जिज़या दें।'' [163] [सूरा अत-तौबा : 29]

मुहारिब : ऐसा ग़ैर-मुस्लिम जिसने मुसलमानों के विरूद्ध युद्ध का एलान कर रखा हो। उसके साथ न कोई वचन हो, न उसे ज़िम्मा दिया गया हो और न ही उसे सुरक्षा प्रदान की गई हो। इन्हीं लोगों के बारे अल्लाह तआला ने कहा है :

''हे ईमान वालो! उनसे उस समय तक युद्ध करो, यहाँ तक कि फ़ितना (अत्याचार तथा उपद्रव) समाप्त हो जाए और धर्म पूरा अल्लाह के लिए हो जाए। तो यदि वे (अत्याचार से) रुक जाएँ, तो अल्लाह उनके कर्मों को देख रहा है।'' [164] [सूरा अल-अनफ़ाल : 39]

युद्ध करने वाले गिरोह का केवल मुक़ाबला करना है। अल्लाह ने उसकी हत्या का आदेश नहीं दिया है। मुक़ाबला और सामना करने का आदेश दिया है। दोनों बातों में बहुत बड़ा अंतर है। इस आयत क़िताल, जंग में आत्मरक्षा में योद्धा का सामना करने के अर्थ में है। यह बात तमाम मानव निर्मित क़ानूनों में भी मौजूद है।

अल्लाह तआला ने कहा है :

"तथा अल्लाह की राह में उनसे युद्ध करो, जो तुमसे युद्ध करते हों और अत्याचार न करो। अल्लाह अत्याचारियों से प्रेम नहीं करता।" [165] [सूरा अल-बक़रा : 190]

हम अक्सर एकेश्वरवादी गैर-मुस्लिमों से सुनते हैं कि उन्हें विश्वास नहीं था कि धरती पर एक ऐसा धर्म भी है, जो केवल एक अल्लाह के पूज्य होने की बात करता है। उनका मानना है कि मुसलमान मुहम्मद की इबादत करते हैं, ईसाई मसीह की पूजा करते हैं और और बौद्ध बुद्ध की पूजा करते हैं। पृथ्वी पर पाया जाने वाला कोई भी धर्म उनके दिलों छूता नहीं है।

यहां हमारे सामने इस्लामी विजयों का महत्व स्पष्ट होता है, जिनका बहुत-से लोगों द्वारा बेसब्री से इंतजार किया गया था और आज भी किया जा रहा है। उन विजयों का उद्देश्य ''धर्म के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है'' के दायरे में एकेश्वरवाद के संदेश को पहुँचा देना हौता है। वह भी इस तरह कि दूसरों का सम्मान बाक़ी रहे और वे अपने धर्म पर बाक़ी रहने और अमन तथा सुरक्षा का उपभोग करने के बदले में हुकूमत के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियाँ अदा करें। जैसा कि मिस्र, स्पेन तथा अन्य बहुत-से देशों को विजय करते समय हुआ।