पहली आयत : ''धर्म में कोई ज़बरदस्ती नहीं है। सत्य असत्य से स्पष्ट हो चुका है।'' [154] यह आयत एक महान इस्लामी नियम को स्थापित करती है। वह नियम यह है कि धर्म के मामले में ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है। जबकि दूसरी आयत है : ''उन लोगों से जिहाद करो, जो अल्लाह एवं आख़िरत के दिन पर ईमान नहीं रखते।'' [155] इस आयत का एक विशेष परिप्रेक्ष्य है। यह आयत उन लोगों के बारे में है, जो अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं एवं दूसरों को इस्लाम स्वीकार करने से मना करते हैं। इस तरह देखें तो दोनों आयतों के बीच कोई विरोधाभास नहीं है। [सूरा अल-बक़रा : 256] [सूरा अल-तौबा : 29]
ईमान बन्दा एवं उसके रब के बीच के रिश्ते को कहते हैं। जिसने उसे काटना चाहा, उसका मामला अल्लाह के हवाले है। मगर जो इसका एलान करना चाहता है और इसे इस्लाम से लड़ने, उसके चेहरे को बिगाड़ने या उसके साथ विश्वासघात करने के ज़रिया के तौर पर लेना चाहता है, खुद मानव निर्मित जंगी क़ानूनों के अनुसार भी उसकी हत्या अनिवार्य है। इससे कोई असहमत नहीं है।
इस्लाम से फिर जाने की सज़ा के हवाले से संदेह की समस्या की जड़ संदेह करने वालों का यह मानना है कि सभी धर्म सही हैं। उनका मानना है कि सृष्टिकर्ता पर ईमान, एकमात्र उसी की इबादत करना एवं उसे हर दोष और कमी से पवित्र समझना, उसके अस्तित्व के इंकार और इस विश्वास के बराबर है कि वह मनुष्य या पत्थर के आकार में प्रकट होता है या उसकी औलाद है। जबकि अल्लाह इन सब चीज़ों से बहुत ऊँचा एवं पाक है। इस भ्रम का कारण कुछ लोगों का यह विश्वास है कि सभी धर्म सत्य पर हो सकते हैं। हालाँकि तर्क की वर्णमाला जानने वाले किसी भी व्यक्ति को यह बात हज़म नहीं हो सकती है। यह स्वतः स्पष्ट है कि ईमान नास्तिक्ता एवं कुफ्र का उल्टा है। इसलिए सही आस्था रखने वाला व्यक्ति पाता है कि सत्य को सापेक्ष कहना तार्किक लापरवाही और मूर्खता है। इस तरह, दो आपस में विरोधी आस्थाओं को सत्य मानना सही नहीं है।
इन तमाम तथ्यों के अलावा मुर्तद (इस्लाम से फिर जाने वाले) कभी भी सज़ा के हक़दार नहीं ठहरेंगे, यदि वे इसका (रिद्दत का) एलान न करें। वे इस बात को अच्छी तरह जानते भी हैं। परन्तु वे मुस्लिम समाज से माँग करते हैं कि वह बिना किसी रोक-टोक के उनके लिए अल्लाह एवं उसके रसूल के साथ उपहास का दरवाज़ा खोल दें, ताकि वे दूसरों को भी कुफ्र एवं अवज्ञा पर प्रोत्साहित कर सकें। उदाहरण स्वरूप कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिनको पृथ्वी का कोई भी राजा अपने राज्य की भूमि पर स्वीकार नहीं करता है। मसलन यह कि उसकी प्रजा का कोई व्यक्ति राजा के अस्तित्व को नकारे, उसका या उसके किसी दल का उपहास करे या उसको ऐसे दोष से दोषित करे, जो राजा के तौर पर उसकी स्थिति के योग्य नहीं है। तो राजाओं के राजा के बारे में आप क्या कहोगे, जो हर चीज़ का निर्माता तथा मालिक है?
कुछ लोग यह सोचते हैं कि जब मुसलमान कुफ़्र करे, तो तुरंत उसपर सज़ा लागू की जाती है। जबकि सही बात यह है कि कुछ कारण होते हैं जो असल में उसको काफ़िर क़रार देने के रास्ते में रुकावट बनते हैं, जैसा कि अज्ञानता, ग़लत व्याख्या, मजबूरी या भूल आदि। इसी लिए अधिकांश विद्वानों ने मुर्तद को तौबा करवाने की पुष्टि की है, क्योंकि हो सकता है कि उसे सत्य को समझने में भ्रम हुआ हो। लेकिन उस मुर्तद को तौबा का अवसर नहीं दिया जाएगा, जो युद्ध पर उतर आए। [156] इब्न-ए-क़ुदामा ''अल-मुग़नी'' में।
मुसलमान मुनाफ़िक़ों (जो कुफ्र को सीने में छुपाए रखते थे और मुसलमान होने का दिखावा करते थे) के साथ मुसलमान जैसा ही व्यवहार करते थे। उनके मुसलमान जैसे ही अधिकार थे। हालाँकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उन लोगों को जानते थे और अपने सहाबी हुज़ैफ़ा को उनके नाम भी बता दिए थे। ऐसा इसलिए कि उन मुनाफ़िक़ों नें अपने कुफ़्र का एलान नहीं किया था।
पैगंबर मूसा एक योद्ध थे और दाऊद भी एक योद्धा थे। मूसा और मुहम्मद ने, उन दोनों पर अल्लाह की शांति हो, राजनीतिक और सांसारिक मामलों की बागडोर संभाली और दोनों ने बुतपरस्त समुदाय से हिजरत की। मूसा -अलैहिस्सलाम- अपने समुदाय के साथ मिस्र से निकल गए और मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने यस़रिब (मदीना) की ओर प्रवास किया। इससे पहले भी आपके अनुयायियों ने हब्शा की ओर हिजरत की थी। ऐसा उन देशों के राजनीतिक और सैन्य प्रभाव से बचने के लिए किया गया था, जहां से वे अपने धर्म के साथ निकल गए थे। इसमें और मसीह -अलैहिस्सलाम- के आह्वान के बीच का अंतर यह था कि मसीह -अलैहिस्सलाम- का आह्वान गैर-बुतपरस्त लोगों के लिए था। अर्थात् यहूदियों के लिए। जबकि मूसा एवं मुहम्मद जिस माहौल (मिस्र तथा अरब) में काम कर रहे थे, वह बुतपरस्तों का था। इन दोनों जगहों की परिस्थितियाँ कहीं ज़्यादा मुश्किल थीं। मूसा एवं मुहम्मद -उन दोनों पर अल्लाह की शांति हो- के आह्वान से जिस बदलाव की आशा की जाती थी, वह एक आमूलचूल और व्यापक परिवर्तन था। बुतपरस्ती से एकेश्वरवाद की ओर एक विशाल परिवर्तन।
रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के समय होने वाले युद्धों में मरने वालों की संख्या हज़ार से अधिक नहीं थी। वह भी अपने आपकी रक्षा करते हुए, आक्रामकता की प्रतिक्रिया में या धर्म की रक्षा में यह जानें गईं। जबकि दूसरे धर्मों में धर्म के नाम पर छेड़ी गई जंगों में मरने वालों की संख्या को देखते हैं, तो वह लाखों तक पहुँचती है।
इसी प्रकार मक्का विजय के दिन मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की दया स्पष्ट रूप से सामने आई, जब आपने कहा : आज रहम करने का दिना है। आपने क़ुरैश की व्यापक माफ़ी का ऐलान किया, जिस क़ुरैश ने मुसलमानों को कष्ट पहुँचाने में कोई कमी नहीं की थी। इस बुराई का बदला भलाई एवं बुरे व्यवहार का प्रतिफल अच्छा व्यवहार से दिया।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''भलाई और बुराई बराबर नहीं हो सकते। आप बुराई को ऐसे तरीक़े से दूर करें जो सर्वोत्तम हो। तो सहसा वह व्यक्ति जिसके और आपके बीच बैर है, ऐसा हो जाएगा मानो वह हार्दिक मित्र है।'' [157] [सूरा फ़ुस्सिलत : 34]
धर्मपरायण लोगों के कुछ गुण हैं। अल्लाह तआला ने कहा है :
''(धर्मपरायण लोग वे हैं) जो क्रोध को दबा लेते हैं, लोगों को क्षमा कर देते हैं और अल्लाह भलाई करने वालों को पसंद करता है।'' [158] [सूरा आल-ए-इमरान : 134]