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क्या इस्लाम सहिष्णुता का आह्वान करता है?

इस्लाम धर्म आह्वान, सहिष्णुता और अच्छे तरीके से की जाने वाली बहस पर आधारित है।

अल्लाह तआला ने कहा है :

"(ऐ नबी!) आप उन्हें अपने पालनहार के मार्ग (इस्लाम) की ओर हिकमत तथा सदुपदेश के साथ बुलाएँ और उनसे ऐसे ढंग से वाद-विवाद करें, जो सबसे उत्तम है। निःसंदेह आपका पालनहार उसे सबसे अधिक जानने वाला है, जो उसके मार्ग से भटक गया और वही सीधे मार्ग पर चलने वालों को भी अधिक जानने वाला है।'' [90] [सूरा अल-नह्ल : 125]

पवित्र क़रआन अंतिम आकाशीय पुस्तक है और पैगंबर मुहम्मद अंतिम पैगंबर हैं। चुनांचे इस्लाम की अंतिम शरीयत सभी के लिए बातचीत करने और धर्म की बुनियादों और सिद्धांतों पर चर्चा करने का मार्ग खोलती है। यह सिद्धांत कि ''धर्म में कोई बाध्यता नहीं है'' इस्लामी धर्म के साये में संरक्षित है। वह, दुसरों के सम्मान का ख़याल रखते हुए, किसी को भी सटीक एवं स्वाभाविक इसलामी विश्वास को अपनाने पर मजबूर नहीं करता। लेकिन दूसरों को भी अपने धर्म पर बने रहने एवं अमन और सुरक्षा प्राप्त करने के बदले में इस्लामी राष्ट्र के नियमों का पालन करना है।

उदाहरण के तौर पर हम उमरी चार्टर को देख सकते हैं। उमरी चार्टर एक पत्र है, जिसे ख़लीफ़ा उमर बिन ख़त्ताब -अल्लाह उनसे राज़ी हो- ने ईलिया (फलस्तीन) वालों के लिए लिखा था, जब उसे मुसलमानों ने 638 ई० में फ़त्ह किया था। उसमें उन्होंने उनको उनके चर्चों और धन-संपत्ति की सुरक्षा प्रदान की थी। उमर पैक्ट को यरूशलम के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से एक माना जाता है।

उस में है : ''शुरू अल्लाह के नाम से। यह पत्र उमर बिन ख़त्ताब की ओर से शहर ईलिया वालों के लिए लिखा जा रहा है। उनकी जानें, औलाद, माल एवं चर्च सुरक्षित हैं। उन्हें न गिराया जाएगा और न ही उनमें दूसरों को बसाया जाएगा।'' [91] इब्न अल-बतरीक़: ''अल-तारीख़ अल-मजमू अला अल-तहक़ीक़ व अल-तस़दीक़'' भाग 2, पृष्ठ : 147

ख़लीफ़ा उमर -अल्लाह उनसे राज़ी हो- यह संधि लिखा रहे थे कि नमाज़ का समय हो गया। पैट्रिआर्क सोफ्रोनियस ने उन्हें नमाज़ के लिए क़यामत चर्च में आमंत्रित किया, जहाँ वे थे। परन्तु ख़लीफ़ा ने इनकार कर दिया और उनसे कहा कि मुझे डर है कि अगर मैं इस गिर्जा में नमाज़ पढ़ूँ, तो मुसलमान तुमसे यह गिर्जा ले लें और कहें कि "यहाँ ईमान वालों के ख़लीफ़ा ने नमाज़ अदा की है।" [92] तारीख़ अल-तबरी और मुजीरुद्दीन अल-उलैमी अल-मक़दिसी

इसी तरह इस्लाम गैर-मुस्लिमों के साथ की गई संधियों एवं वादों का सम्मान करता है और उनको पूरा करता है। परन्तु वह धोखा करने वालों एवं वचनों का उल्लंघन करने वालों पर सख़्त है। साथ ही वह मुसलमानों को इन धोखेबाजों से दोस्ती करने से मना भी करता है।

''ऐ ईमान वालो! उन लोगों को जिन्होंने तुम्हारे धर्म को उपहास और खेल बना लिया, उन लोगों में से जिन्हें तुमसे पहले पुस्तक दी गई है और काफ़िरों को मित्र न बनाओ और अल्लाह से डरो, यदि तुम ईमान वाले हो।'' [93] [सूरा अल-माइदा : 57]

पवित्र क़ुरआन मुसलमानों से लड़ने और उन्हें उनके घरों से निकालने वालों से मोहब्बत न रखने के बारे में एक से अधिक स्थानों पर स्पष्ट और साफ़ है।

''अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों से अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के विषय में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला। निश्चय अल्लाह न्याय करने वालों से प्रेम करता है। अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मैत्री रखने से रोकता है, जिन्होंने तुमसे धर्म के विषय में युद्ध किया तथा तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला और तुम्हें निकालने में एक-दूसरे की सहायता की। और जो उनसे मैत्री करेगा, तो वही लोग अत्याचारी हैं।'' [94] क़ुरआन करीम मसीह और मूसा के समुदायों में से उनके ज़माने के एकेश्वरवादी लोगों की सराहना करता है।

[सूरा अल-मुमताहिना: 8,9]

''वे सभी समान नहीं हैं; किताब वालों में एक समूह (सत्य पर) स्थापित है, जो रात की घड़ियों में अल्लाह की आयतें पढ़ते हैं और वे सजदे करते हैं। वे अल्लाह तथा अंतिम दिन (क़यामत) पर ईमान रखते हैं और भलाई का आदेश देते हैं और बुराई से रोकते हैं और भलाई के कामों में जल्दी करते हैं और वही अच्छे लोगों में से हैं।'' [95] ''और निःसंदेह अह्ले किताब (अर्थात यहूद और ईसाई) में से कुछ ऐसे भी हैं, जो अल्लाह पर तथा तुम्हारी ओर जो उतारा गया है उसपर ईमान रखते हैं, अल्लाह से डरे रहते हैं और उसकी आयतों को थोड़ी-थोड़ी क़ीमतों पर नहीं बेचते हैं। उनका बदला उनके रब के पास है। निःसंदेह अल्लाह जल्दी हिसाब लेने वाला है।'' [96]

[सूरा आल-ए-इमरान : 113,114] ''वस्तुतः, जो ईमान लाये तथा जो यहूदी हुए और नसारा (ईसाई) तथा साबी, जो भी अल्लाह तथा अन्तिम दिन (क़यामत) पर ईमान लायेगा और सत्कर्म करेगा, उनका प्रतिफल उनके पालनहार के पास है और उन्हें कोई डर नहीं होगा और न ही वे उदासीन होंगे।'' [97]

[सूरा आल-ए-इमरान : 199] ज्ञानोदय (enlightenment) की अवधारणा पर इस्लाम की राय क्या है?