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सच्चे धर्म की उदारता :

क्या इस्लाम ग्रहण करना सबके लिए उपलब्ध है?

हाँ, इस्लाम सबके लिए उपलब्ध है। हर बच्चा अपनी असली फ़ितरत पर पैदा होता है। बिना किसी मध्यस्थ के अपने अल्लाह की इबादत करने वाला (मुसलमान) होकर। माता-पिता, स्कूल या किसी धार्मिक पक्ष के हस्तक्षेप के बिना, वह वयस्क होने तक सीधे अल्लाह की इबादत करता है। फिर वह अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार और जवाबदेह बन जाता है। वयस्क होने के बाद या तो मसीह -अलैहिस्सलाम- को अपने और अल्लाह के बीच मध्यस्थ बना लेता है और फलस्वरूप ईसाई बन जाता है, बुद्ध को मध्यस्त बना लेता है और नतीजे के तौर बौद्ध हो जाता है, कृष्ण को को मध्यस्थ बनाकर हिन्दू हो जाता है, मुहम्मद को मध्यस्थ बनाकर इस्लाम से बिल्कुल दूर हो जाता है या फिर दीन-ए-फ़तरत पर बाक़ी रहता है और एकमात्र अल्लाह की इबादत करता है। मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के द्वारा अपने रब के पास से लाए हुए संदेश का पालन करना ही सत्य धर्म है और यही धर्म सही फ़ितरत के अनुरूप भी है। उसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह विकृत है, यद्यपि मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को इंसान एवं अल्लाह के बीच मध्यस्थ बनाना ही क्यों न हो।

"प्रत्येक पैदा होने वाला शिशु फितरत (इसलाम ) पर जन्म लेता है। फिर उसके माता-पिता उसे यहूदी बना देते हैं, ईसाई बना देते हैं या मजूसी (अग्नि पूजक) बना देते हैं।" [88] विभिन्न धर्मों के बीच संवाद के बारे में इस्लाम की क्या राय है?

[सहीह मुस्लिम]

सृष्टिकर्ता की तरफ से आने वाला सत्य धर्म अनेक नहीं, केवल एक है। वह है, एक अल्लाह पर ईमान और केवल उसकी इबादत करना। उसके अतिरिक्त जितने भी धर्म हैं, सब मानव निर्मित हैं। उदाहरण स्वरूप हम भारत की यात्रा करें और लोगों के सामने कहें कि सृष्टिकर्ता एक है, तो सभी एक आवाज़ में कहेंगे कि हाँ, हाँ, सृष्टिकर्ता एक है और वास्तव में यही उनकी पवित्र पुस्तकों में लिखा हुआ भी है। [89] परन्तु एक मुख्य बिंदु पर वे मतभेद करेंगे और लड़ पड़ेंगे और हो सकता है कि एक-दूसरे की हत्या पर उतर आएँ। वह है, वह छवि और रूप जिसे धारण करके ईश्वर पृथ्वी में प्रकट होता है। उदाहरण के तौर पर भारतीय ईसाई कहेंगे ईश्वर एक है, लेकिन वह तीन व्यक्तियों (पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा) में देहधारी होता है। जबकि भारतीय हिन्दुओं में से कुछ कहेंगे कि ईश्वर जानवर, इंसान या मूर्ति के रूप में प्रकट होता है। हिंदू धर्म के (चंदुजा उपनिषद 6 : 1-2) में है: ''वह केवल एक पूज्य है, उसका कोई दूसरा नहीं है।'' (वेद, स्वेता स्वातार उपनिषद :19ः4, 20ः4, 6:9) में है : ''पूज्य के न तो पिता हैं और न ही स्वामी।'' ''उसे देखना संभव नहीं, उसे कोई आँख से नहीं देखता।'' ''उस जैसा कोई नहीं है।'' (यजुर्वेद 40:9) में है : ''अंधेरे में प्रवेश करते हैं, जो लोग प्राकृतिक तत्त्वों (वायु, जल, अग्नि आदि) की उपासना करते हैं। अंधेरे में डूबते हैं : जो संबुति (हाथ से बनी हुई चीज़ें जैसे मुर्ति एवं पत्थर आदि।) की पूजा करने वाले हैं। ईसाई धर्म में : (मैथ्यू 4:10) में है : ''उस समय यसू ने उससे कहा : जाओ हे शैतान, यह लिखा हुआ है, तेरे पूज्य रब के लिए सजदा कर और उसी की इबादत कर।'' (निर्गमन 20: 3-5) में है : ''मेरे सामने और कोई देवता न रखना। न तो अपने लिये तराशी हुई मूरत बनाना, और न कोई चित्र, न ऊपर आकाश में, न नीचे पृथ्वी पर, और न पृथ्वी के नीचे जल के अंदर। उनकी उपासना न कर। क्योंकि मैं तेरा परमेश्वर ईर्ष्यालु (गैरतमंद) पूज्य हूं, जो मुझसे बैर रखने वालों की तीसरी और चौथी पीढ़ी के पितरों के पापों को प्रायश्चित करता है।"

यदि इंसान गहराई से सोचे तो पाएगा कि धार्मिक गिरोहों और स्वयं धर्मों के बीच सभी समस्याओं एवं मतभेदों का कारण वह मध्यस्थ हैं, जिन्हें इंसान उनके एवं उनके सृष्टिकर्ता के बीच बना लेता है। उदाहरण के तौर पर कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेंट आदि संप्रदाय, हिंदू संप्रदाय से निर्माता के साथ संवाद करने के तरीके पर भिन्न हैं, स्वयं निर्माता के अस्तित्व की अवधारणा पर नहीं। यदि वे सभी सीधे ईश्वर की इबादत करें, तो एक हो जाएंगे।

उदाहरण के तौर पर पैगंबर इब्राहिम -उनपर शांति हो- के समय में एक अल्लाह की इबादत करने वाला इस्लाम धर्म पर था। वही सत्य धर्म माना जाता था। लेकिन किसी पुजारी या संत को अपने और अपने रचयिता के बीच मध्यस्थ बनाने वाला गलत था। इब्राहीम -उनपर शांति हो- के अनुयायी केवल एक अल्लाह की पूजा करने तथा यह गवाही देने पर बाध्य थे कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं है और इब्राहीम अल्लाह के रसूल हैं। अल्लाह तआलान ने मूसा -उनपर शांति हो- को इब्राहीम -उनपर शांति हो- के संदेश की पुष्टि के लिए भेजा, तो इब्राहीम -अलैहिस्सलाम- के अनुयायियों पर नए नबी को स्वीकार करना और यह गवाही देना ज़रूरी हो गया कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है तथा मूसा व इब्राहीम अल्लाह के रसूल हैं। उस समय जो बछड़े की पूजा करता था, वह ग़लत रास्ते पर था।

जब ईसा -अलैहिस्सलाम- मूसा -अलैहिस्सलाम- के संदेश की पुष्टि के लिए आए, तो मूसा के अनुयायियों पर ईसा को सच मानना, उनकी पैरवी करना और यह गवाही देना ज़रूरी हो गया कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई माबूद नहीं है और ईसा, मूसा और इब्राहीम अल्लाह के रसूल हैं। अब जिसने तीन माबूदों की आस्था रखी और ईसा तथा उनकी माँ सत्यवादी मरयम की इबादत की, वह ग़लती पर था।

इसी तरह जब मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अपने पूर्व के नबियों के पैग़ाम की पुष्टि के लिए आए, तो ईसा और मूसा -उन दोनों पर शांति हो- के अनुयायियों पर नए नबी को स्वीकार करना और यह गवाही देना अनिवार्य हो गया कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद, ईसा, मूसा और इब्राहीम अल्लाह के रसूल हैं। अब जो मुहम्मद की इबादत करे या उनसे मदद माँगे, वह असत्य एवं ग़लत पर है।

इस्लाम उन आकाशीय धर्मों की पुष्टि करता है, जो उससे पहले उसके ज़माने तक आते रहे। इस्लाम यह मानता है कि रसूलगण जो धर्म लाए वो अपने-अपने युग के लिए उपयुक्त थे। परन्तु आवश्यकता के बदलने के साथ-साथ नए धर्म की बारी आती है, जो मूल में तो पूर्व के धर्म के साथ सहमत होता है, परन्तु ज़रूरतों के अनुसार आदेशों एवं निर्देशों में भिन्न होता है। वह अपने पूर्व के धर्मों के एकेश्वरवाद की पुष्टि करता है और वह संवाद का रास्ता अपनाकर सृष्टिकर्ता के संदेश के स्रोत के एक होने की हक़ीक़त को पूरी तरह स्वीकार करने वाला होगा।

धर्मों के बीच संवाद इसी मूल अवधारणा पर आधारित होना चाहिए, ताकि एक सच्चे धर्म की अवधारणा और अन्य धर्मों के बातिल होने पर जोर दिया जा सके।

संवाद के कुछ अस्तित्वगत और धार्मिक उसूल हैं। एक व्यक्ति के लिए यह जरूरी है कि वह उनका सम्मान करे और दूसरे के साथ संवाद करने के लिए उन ही को आधार बनाए। क्योंकि इस संवाद का उद्देश्य कट्टरता और मनमानी से छुटकारा पाना है, जो पक्षपातपूर्ण अंधी संबद्धता को मिटाने का नाम है, जो मनुष्य को शुद्ध एकेश्वरवाद की वास्तविकता से दूर रखती है और लड़ाई तथा विनाश की ओर ले जाती है, जैसा कि इस समय हमारी स्थिति है।