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[सूरा अल-आराफ़ : 158]

एक चीज़ है, जिस फ़ितरत-ए-सलीमा या मंतिक़-ए-सलीम कहा जाता है। हर वह चीज़ जो फ़ितरत-ए-सलीमा और सही अक़्ल के अनुरूप हो, वह अल्लाह की तरफ से है, जबकि हर जटिल चीज़ मानव की तरफ़ से है।

मिसाल के तौर पर :

यदि हमें कोई इस्लाम, ईसाई, हिन्दू या किसी और धर्म का आदमी बताए कि इस ब्रह्मांड का एक ही सृष्टिकर्ता है, उसका कोई साझी नहीं है और न उसकी कोई संतान है, वह किसी इंसान, जानवर, पत्थर या मूर्ति की शक्ल में इस दुनिया में नहीं आता, हमें उसकी इबादत करनी चाहिए और मुसीबत के समय उसी की शरण में आना चाहिए, तो यह वास्तव में अल्लाह का धर्म है। इसके विपरीत यदि हमें कोई मुस्लिम, ईसाई या हिन्दू धर्म गुरु बताए कि अल्लाह मानव जाति के लिए ज्ञात किसी भी रूप में अवतरित होता है, हमें किसी व्यक्ति, नबी, पुजारी या संत के माध्यम से अल्लाह की इबादत करनी चाहिए एवं उसकी शरण में आना चाहिए, तो यह मानव की तरफ से है।

अल्लाह का दीन स्पष्ट एवं तर्कसंगत है। उसमें पहेलियाँ नहीं हैं। यदि कोई धार्मिक व्यक्ति किसी व्यक्ति को मनवाना चाहे कि मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पूज्य हैं और उसे उनकी इबादत करनी चाहिए, तो उस धार्मिक व्यक्ति को उसे संतुष्ट करने में बहुत प्रयत्न करना पड़ेगा। फिर भी वह कभी संतुष्ट नहीं होगा। क्योंकि हो सकता है कि वह प्रश्न करे कि नबी कैसे पूज्य हो सकते हैं, जबकि वह हमारी तरह खाते-पीते थे? हो सकता है वह धार्मिक व्यक्ति अंत में यही कहे कि तुम इसे समझ नहीं सकते हो, क्योंकि यह एक जटिल बात है। जब तुम अल्लाह से मिलोगे, तो समझ जाओगे। जैसा कि आज बहुत-से लोग ईसा -अलैहिस्सलाम-, बुद्ध एवं दूसरे की इबादत को जायज़ ठहराने के लिए करते हैं। यह उदाहरण इस बात को स्पष्ट करता है कि अल्लाह के सही धर्म को पहेलियों से ख़ाली होना चाहिए और पहेलियाँ इंसानों की तरफ से होती हैं।

अल्लाह का धर्म फ्री भी होता है। सभी को अल्लाह के घरों में इबादत करने एवं नमाज़ पढ़ने की स्वतंत्रता है। बिना इसके कि उनमें इबादत के लिए आदमी को उनकी सदस्यता लेनी पड़े और उसके लिए उसे पैसा चुकाना पड़े। इसके विपरीत यदि किसी भी इबादत स्थल में नामांकन करना पड़े और पैसा चुकाना पड़े, तो यह मानव की तरफ से है। हाँ, यदि धर्म गुरु उनसे कहें कि लोगों की सहायता के लिए उन्हें सदक़ा (दान) करना चाहिए, तो यह अल्लाह की तरफ से है।

अल्लाह के दीन में लोग कंघे के दातों की तरह बराबर हैं। यहाँ अरबी एवं गैर अरबी, गोरे एवं काले के बीच कोई अंतर नहीं है। हाँ, अंतर है तो केवल तक़वा (परहेज़गारी) के आधार पर। इसलिए अगर कोई यह कहे कि कोई विशेष मस्जिद, कोई चर्च या मंदिर केवल गोरों के लिए है एवं कालों के लिए दूसरा स्थान है, तो यह मानव निर्मित धर्म है।

औरत का सम्मान देना एवं उसकी श्रेणी को उँचा करना अल्लाह का आदेश है, जबकि औरत का अपमान मानव की ओर से है। उदाहरण के लिए, यदि किसी देश में एक मुस्लिम महिला पर अत्याचार किया जाता है, तो हिंदू महिला पर भी अत्याचार होता है, और उसी देश में बौद्ध और ईसाई महिला पर भी अत्याचार होता है। यह (अत्याचार) जातियों की संस्कृति है और इसका अल्लाह के सच्चे धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।

अल्लाह का सच्चा धर्म हमेशा प्रकृति के अनुरूप होता है। जैसा कि एक धूम्रपान करने वाला एवं शराब पीने वाला भी हमेशा अपने बच्चे को शराब पीने एवं धूम्रपान करने से मना करता है, क्योंकि उसका गहरा विश्वास है कि स्वस्थ एवं समाज पर इन चीज़ों के बुरे प्रभाव पड़ते हैं। उदाहरण स्वरूप, जब धर्म मदिरा पान को अवैध करता है, तो वास्तव में यह अल्लाह के आदेशों में से एक आदेश है। परन्तु उदाहरण स्वरूप, यदि दूध हराम होने का आदेश आता, तो हमारी समझ के अनुसार यह कोई तर्कसंगत आदेश नहीं होता, क्योंकि हर किसी को मालूम है कि दूध स्वस्थ के लिए लाभदायक है, इसलिए धर्म ने इसे हराम नहीं किया है। यह अल्लाह की अपनी सृष्टि पर रहमत और नरमी है कि उसने हमें स्वच्छ चीज़ों को खाने का आदेश दिया एवं बुरी चीजों के खाने से मना किया।

महिला के लिए सर ढ़ांपना एवं मर्दों एवं औरतों के लिए हया एख़्तियार करना अल्लाह का आदेश है, परन्तु रंगों एवं डिज़ाइन का विवरण इंसान की तरफ से है। एक नास्तिक ग्रामीण चीनी महिला एवं एक ग्रामीण ईसाई स्विस स्त्री केवल इस आधार पर सर ढाँपती है यह हया एक फ़ितरी चीज़ है।

उदारण स्वरूप, आतंकवाद सभी धर्मों के लोगों में विभिन्न शक्लों में फैला हुआ है। अफ्रीका और पूरी दुनिया में ईसाई संप्रदाय के कुछ गिरोह धर्म के नाम पर और ईश्वर के नाम पर हत्या करते हैं तथा उत्पीड़न एवं हिंसा के सबसे बुरे रूपों को अपनाते हैं। वे दुनिया की ईसाई आबादी का 4% हैं। जबकि इस्लाम के नाम पर आतंकवाद का रास्ता एख़्तियार करने वालों की संख्या मुस्लिम आबादी का 0.01% है। इतना ही नहीं, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म और अन्य धर्मों के मानने वालों में भी आतंकवाद फैला हुआ है।

इस तरह से हम किसी भी पुस्तक को पढ़े बिना भी सत्य एवं असत्य के बीच अंतर कर सकते हैं।