अल्लाह उन लोगों के लिए क्षमाशील और दयालु है, जो बिना किसी जिद के और मानव स्वभाव और मनुष्य की कमज़ोरी के कारण पाप करते हैं, फिर उसके सामने तौबा करते हैं और अपने गुनाहों द्वारा अल्लाह को चुनौती नहीं देते हैं। मगर अल्लाह उसके लिए कठोर है, जो उसको चुनौती देता है, उसके अस्तित्व का इंकार करता है और उसके बुत एवं जानवर की सूरत में प्रकट होने की आस्था रखता है। इसी तरह, अल्लाह उसके लिए भी कठोर है जो अपनी अवज्ञा में आगे बढ़ता जाता है, पश्चाताप नहीं करता है और अल्लाह नहीं चाहता है कि उसे पश्चाताप की तौफ़ीक मिले। यदि कोई इंसान किसी जानवर को गाली दे, तो कोई उसे बुरा नही कहेगा, परन्तु यदि वह अपने माँ-बाप को गाली दे, तो लोग उसे सख़्त बुरा-भला कहेंगे। अब ज़रा सृष्टिकर्ता के अधिकार का अंदाज़ा लगाइए? हमें यह नहीं देखना चाहिए कि हमने कितनी छोटी अवज्ञा की है, बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि हमने किसकी अवज्ञा की है।
बुराई अल्लाह की तरफ से नहीं आती है। बुराइयाँ अस्तित्वगत मामले नहीं हैं। अस्तित्व केवल अच्छाई का है।
उदाहरण के तौर पर यदि कोई व्यक्ति खड़ा होता है और किसी अन्य व्यक्ति को तब तक मारता है, जब तक वह हिलने-डुलने की क्षमता खो नहीं देता, तो यह अत्याचार है और अत्याचार बुरी चीज़ है।
लेकिन वह व्यक्ति जो लाठी उठाता है और दूसरे व्यक्ति को मारता है, उसके पास शक्ति का होना कोई बुराई नहीं है।
इच्छा का पाया जाना, जो अल्लाह ने उसके अंदर रखी है, बुराई नहीं है।
उसके पास हाथ हिलाने की क्षमता होना भी बुराई नहीं है।
लाठी में मारने का गुण होना भी बुराई नहीं है।
इन सब अस्तित्वगत चीज़ों का होना अपने आपमें भलाई है और इसमें कोई बुराई नहीं है, जब तक इन चीज़ों के ग़लत इस्तेमाल से कोई नुकसान न हो, जो कि पिछले उदाहरण में पक्षाघात रोग है। इस उदाहरण के आधार पर, एक बिच्छू और एक सांप का अस्तित्व अपने आप में कोई बुराई नहीं है, जब तक कि कोई व्यक्ति इन्हें न छेड़े और यह उसे डंक न मार दें। अल्लाह के कार्यों में बुराई नहीं है। वह केवल भलाई है। बल्कि बुराई उन धटनाओं में है, जिनको अल्लाह अपने फ़ैस़ले एवं किसी निर्धारित हिकमत के कारण घटित होने देता है। उनमें बहुत सारे हित छुपे होते हैं। हालांकि अल्लाह उन घटनाओं को घटित होने से रोकने में सक्षम है। मगर इंसान ने इन अच्छी चीज़ों का ग़लत प्रयोग किया है।
सृष्टिकर्ता ने प्रकृति के नियम और उन्हें संचालित करने वाली पद्धतियाँ स्थापित कर रखी हैं। ये नियम और पद्धतियाँ किसी पर्यावरणीय असंतुलन या खराबी की स्थिति में खुद को खुद के द्वारा बचाने का काम करती हैं और पृथ्वी में सुधार और जीवन को बेहतर तरीके से जारी रखने के उद्देश्य से इस संतुलन के अस्तित्व को बनाए रखती हैं। दरअसल वही चीज़ पृथ्वी पर ठहरती और बाक़ी रहती है, जो लोगों और जीवन के लिए लाभकारी होती है। जब पृथ्वी पर मनुष्यों को प्रभावित करने वाली आपदाएँ, जैसे बीमारियाँ, ज्वालामुखी, भूकंप और बाढ़ आदि आती हैं, तो उनके माध्यम से अल्लाह के कुछ नाम और गुण, जैसे शक्तिशाली, शिफ़ा देने वाला और रक्षक आदि प्रकट होते हैं। उसका नाम न्याय करने वाला किसी अत्याचारी या पापी को सज़ा देते समय प्रकट होता है और उसका नाम हकीम निष्पाप व्यक्ति को आज़माते समय प्रकट होता है, जिसे आज़माइश के समय सब्र करने पर अच्छा बदला मिलेगा तथा सब्र न करने पर यातना का सामना करना पड़ेगा। इन आज़माइशों के माध्यम से इंसान अपने रब की महानता को एवं उसके दिए हुए उपहारों के माध्यम से उसके जमाल (सौंदर्य) को जान पाता है। यदि इंसान केवल अल्लाह के ख़ूबसूरत नामों एवं गुणों को जाने तो वह अल्लाह को पूरी तरह जान नहीं पाएगा।
बहुत सारे समकालीन भौतिकवादी दार्शनिकों के नास्तिक्ता अपनाने के पीछे आपदाओं, बुराई और कष्ट का हाथ रहा है। उन्हीं में से एक दार्शनिक ''एंथोनी फ्लेव'' हैं। उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले अल्लाह के अस्तित्व को स्वीकार किया एवं एक पुस्तक लिखी जिसका नाम ''अल्लाह पाया जाता है'' रखा। बावजूद इसके कि वह बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में नास्तिकता के नेता थे, उन्होंने अल्लाह के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए कहा :
''मानव जीवन में बुराई और पीड़ा की उपस्थिति माबूद के अस्तित्व को नकारती नहीं है, लेकिन यह हमें दैवीय गुणों पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करती है।" एंथनी फ्लेव का मानना है कि इन आपदाओं के कई सकारात्मक पहलू हैं। मसलन यह इन्सान की भौतिक क्षमताओं को उकसाती हैं और वह कुछ ऐसा आविष्कार करता है, जो उसे सुरक्षा प्रदान करता है। यह उसके सर्वोत्तम मनोवैज्ञानिक लक्षणों को भी उभारती हैं और उसे लोगों की मदद करने के लिए प्रेरित करती हैं। पूरे इतिहास में मानव सभ्यताओं के निर्माण में बुराई और कष्ट का भी योगदान रहा है। वह कहते हैं : "इस दुविधा की व्याख्या करने के लिए चाहे कितने भी शोध हों, धार्मिक व्याख्या सबसे स्वीकार्य और जीवन की प्रकृति के सबसे अधिक अनुकूल रहेगी।” [308] पुस्तक ''ख़ुराफ़ह अल-इल्हाद'' (नास्तिक्ता का मिथक) से उद्धरित, डा० अम्र शरीफ़, प्रकाशन वर्ष 2014 ई०।
वास्तव में, हम देखते हैं कि हम कभी-कभी अपने छोटे बच्चों को, उनके पेट में चीरा लगवाने के लिए प्यार से ऑपरेटिंग रूम में ले जाते हैं। ऐसा करते समय हमें डॉक्टर की बुद्धिमत्ता, छोटे बच्चे के लिए उसके प्यार और उसे बचाने के लिए उसकी तत्परता पर पूरा भरोसा होता है।
अल्लाह के अस्तित्व को नकारने के बहाने के रूप में इस सांसारिक जीवन में बुराई के अस्तित्व के कारण के बारे में प्रश्न करने वाला, हमारे सामने अपनी अदूरदर्शिता, उसके पीछे की हिकमत के संबंध में अपने विचार की कमज़ोरी और अंतरतम चीजों के बारे में जागरूकता की कमी को प्रकट करता है। जबकि नास्तिकों ने भी अपने प्रश्न के ज़िम्न में यह स्वीकार किया है कि बुराई एक अपवाद है।
इसलिए, बुराई के पीछे छुपी हिकमत के बारे में पूछने से पहले, इससे भी अधिक यथार्थ प्रश्न पूछना चाहिए था कि "सबसे पहले भलाई कैसे पाई गई?''
इसमें किसी तरह का कोई संदेह नहीं है कि जो प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण है, उससे शुरूआत करनी चाहिए कि भलाई को किसने पैदा किया है? हमें शुरुआती बिंदु या मूल या प्रचलित सिद्धांत पर सहमत होना चाहिए। उसके बाद हम अपवादों के कारण ढूंढ़ सकते हैं।
वैज्ञानिक शुरुआत में भौतिकी, रसायन विज्ञान और जीव विज्ञान के निश्चित और विशिष्ट नियम स्थापित करते हैं, फिर उन नियमों के अपवादों और विसंगतियों का अध्ययन किया जाता है। इसी तरह, नास्तिक केवल उसी समय बुराई के उद्भव की परिकल्पना को दूर कर सकते हैं, जब वे शुरू में असंख्य सुंदर, व्यवस्थित और अच्छी घटनाओं से भरी दुनिया के अस्तित्व को स्वीकार करें।
इसी तरह औसत जीवन में स्वास्थ्य की अवधि और बीमारी की अवधि की तुलना के द्वारा, या दशकों की समृद्धि और उन्नति और तबाही और विनाश की प्रतिकूल अवधियों की तुलना के द्वारा, इसी प्रकार प्रकृति की सदियों की शांति और स्थिरता और ज्वालामुखियों और भूकंपों के प्रतिकूल विस्फोट की तुलना के द्वारा हम इस तथ्य तक पहुंच सकते हैं कि शुरू से फैली हुई भलाई कहाँ से आई? अराजकता और संयोग पर आधारित दुनिया एक अच्छी दुनिया का निर्माण नहीं कर सकती।
प्रतिकूल बात यह है कि वैज्ञानिक प्रयोग इसकी पुष्टि करते हैं। ऊष्मप्रवैगिकी के दूसरे नियम में कहा गया है कि बिना किसी बाहरी प्रभाव के एक पृथक प्रणाली में कुल एन्ट्रापी (विकार या यादृच्छिकता की डिग्री) हमेशा बढ़ेगी और यह प्रक्रिया अपरिवर्तनीय है।
दूसरे शब्दों में, संगठित चीजें हमेशा ढहती और लुप्त होती रहेंगी, जब तक कि बाहर से कोई चीज़ उन्हें एकत्र न करे। इसी तरह, अंधे उष्मागतिक बल कभी भी अपने आप में कुछ भी अच्छा नहीं बना सकते थे, न बड़े पैमाने पर अच्छे हो सकते थे, जैसा कि वे हैं, जब तक कि सृष्टिकर्ता इन यादृच्छिक चीज़ों को संगठित न करता जो अद्भुत चीजों में प्रकट होती हैं जैसा कि ख़ूबस़ूरती, हिकमत, ख़ुशी और मुहब्बत। यह केवल यह प्रमाणित करने के लिए है कि असल भलाई है और बुराई अपवाद है, और यह कि एक माबूद है जो सक्षम है, सृष्टिकरता है, स्वामी है और प्रबंधक है।