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इस्लाम में अधिकार :

दास प्रथा के बारे इस्लाम की क्या राय है?

इस्लाम से पहले ग़ुलामी लोगों के बीच एक प्रचलित व्यवस्था थी और बिना किसी प्रतिबंध के जारी थी। ग़ुलामी के खिलाफ इस्लाम की लड़ाई का उद्देश्य पूरे समाज के दृष्टिकोण और मानसिकता को बदलना था। ताकि ग़ुलाम, अपनी मुक्ति के बाद प्रदर्शनों, हड़तालों, सिविल अवज्ञा, यहाँ तक कि जातीय क्रांतियों का सहारा लिए बिना समाज के पूर्ण और सक्रिय सदस्य बन सकें। इस्लाम का उद्देश्य इस घिनौने शासन से जल्द से जल्द और शांतिपूर्ण तरीकों से छुटकारा पाना था।

इस्लाम ने शासक को अपनी प्रजा के साथ ग़ुलामों जैसा व्यवहार करने की अनुमति नहीं दी है। इसी प्रकार इस्लाम ने शासक और अवाम दोनों को स्वतंत्रता और न्याय की सीमा के भीतर अधिकार एवं कर्तव्य प्रदान किए हैं। चुनांचे कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित), स़दक़ा एवं भलाई में बढ़ चढ़कर भाग लेने के द्वारा एवं सारे संसारों के रब की निकटता प्राप्त करने के लिए ग़ुलाम को आज़ाद करके ग़ुलामी का अंत होगा।

वह दासी महिला जो अपने मालिक के बच्चे को जन्म दे, उसको बेचा नहीं जाता था और अपने मालिक की मौत के बाद अपने आप स्वतंत्र हो जाती थी। पिछली सभी परंपराओं के विपरीत, इस्लाम ने कानून बनाया कि एक ग़ुलाम महिला का बेटा अपने पिता के साथ मिल जाएगा और मुक्त हो जाएगा। इसने यह भी वैध कर दिया कि एक दास धन के बदले या एक निर्धारित अवधि के लिए काम करके अपने मालिक से खुद को ख़रीद सकता है।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''तथा तुम्हारे दास-दासियों में से जो लोग मुक्ति के लिए लेख की माँग करें, तो तुम उन्हें लिख दो, यदि तुम उनमें कुछ भलाई जानो।'' [244] [सूरा अल-नूर : 33]

वह लड़ाइयाँ जो इस्लाम में धर्म, जान एवं माल की रक्षा के लिए लड़ी गईं, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनमें अपने साथियों को क़ैदियों के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश दिया। साथ ही क़ैदियों को विकल्प दिया गया कि वे कुछ पैसा चुका कर या बच्चों को लिखना-पढ़ना सिखा कर अपनी आज़ादी प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार इस्लाम की क़ैदी व्यवस्था बच्चा को उसकी माँ से एवं भाई को उसके भाई से वंचित करने की अनुमति नहीं देती।

इस्लाम ने मुसलमानों को आदेश दिया है कि वे आत्मसमर्पण करने वाले लड़ाकों पर दया करें।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''और यदि मुश्रिकों में से कोई तुमसे शरण माँगे, तो उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुने। फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान तक पहुँचा दो। यह इसलिए कि निःसंदेह वे ऐसे लोग हैं, जो ज्ञान नहीं रखते।'' [245] [सूरा अल-तौबा : 6]

इस्लाम ने यह भी स्पष्ट किया कि मुसलमानों के पैसों या राज्य के खजाने से भुगतान के माध्यम से गुलामों को मुक्त करने में मदद की जा सकती है। जैसा कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और उनके साथियों ने सार्वजनिक ख़जाने के धन से दासों को मुक्त करने के लिए फिदया दी।

माता-पिता और रिश्तेदारों के अधिकार के बारे में इस्लाम का क्या कहना है?

अल्लाह तआला ने कहा है :

"और (ऐ बंदे) तेरे पालनहार ने आदेश दिया है कि उसके सिवा किसी की इबादत न करो, तथा माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो। यदि तेरे पास दोनों में से एक या दोनों वृद्धावस्था को पहुँच जाएँ, तो उन्हें 'उफ़' तक न कहो, और न उन्हें झिड़को, और उनसे नरमी से बात करो।'' और दयालुता से उनके लिए विनम्रता की बाँहें झुकाए रखो और कहो : ऐ मेरे पालनहार! उन दोनों पर दया कर, जैसे उन्होंने बचपन में मेरा पालन-पोषण किया।" [246] [सूरा अल-इसरा : 23-24]

''और हमने मनुष्य को अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करने की ताकीद दी। उसकी माँ ने उसे दुःख झेलकर गर्भ में रखा तथा दुःख झेलकर जन्म दिया और उसकी गर्भावस्था की अवधि और उसके दूध छोड़ने की अवधि तीस महीने है। यहाँ तक कि जब वह अपनी पूरी शक्ति को पहुँचा और चालीस वर्ष का हो गया, तो उसने कहा : ऐ मेरे पालनहार! मुझे सामर्थ्य प्रदान कर कि मैं तेरी उस अनुकंपा के लिए आभार प्रकट करूँ, जो तूने मुझपर और मेरे माता-पिता पर उपकार किए हैं। तथा यह कि मैं वह सत्कर्म करूँ, जिसे तू पसंद करता है तथा मेरे लिए मेरी संतान को सुधार दे। निःसंदेह मैंने तेरी ओर तौबा की तथा निःसंदेह मैं मुसलमानों (आज्ञाकारियों) में से हूँ।'' [247] [सूरा अल-अहक़ाफ़ :15]

''और रिश्तेदारों को उनका हक़ दो, तथा निर्धन और यात्री को (भी) और अपव्यय न करो।'' [248] [सूरा अल-इसरा : 26]

पड़ोसी के अधिकार के बारे में इस्लाम का क्या कहना है?

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है : “अल्लाह की क़सम! वह व्यक्ति मोमिन नहीं है, अल्लाह की क़सम! वह व्यक्ति मोमिन नहीं है, अल्लाह की क़सम! वह व्यक्ति मोमिन नहीं है।” पूछा गया कि ऐ अल्लाह के रसूल! यह बात आप किसके बारे में कह रहे हैं? आपने उत्तर दिया : “जिसका पड़ोसी उसकी तकलीफ़ से सुरक्षित नहीं रहता।” [249] [सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम]

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है: ''पड़ोसी को शुफ़आ का अधिकार (अर्थात वह खरीदार पर ज़ोर डालकर पड़ोसी की संपत्ति ख़रीद सकता है) है। यदि पड़ोसी ग़ायब हो तो उसकी प्रतीक्षा की जाएगी, यदि उन दोनों का रास्ता एक हो।'' [250] [मुसनद इमाम अहमद]

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है : ''ऐ अबूज़र! जब शोरबा पकाओ, तो उसमें पानी ज़्यादा डाल दो और पड़ोसियों का भी ख़्याल रख लो।'' [251] [इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।]

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है : ''जिसके पास ज़मीन हो और वह उसे बेचना चाहता हो, तो (पहले) खरीदने का अवसर अपने पड़ोसी को दे।'' [252] [यह हदीस सहीह है और सुनन इब्न-ए-माजा में मौजूद है।]