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इस्लाम में औरतों पर मर्दों को मालिक क्यों बनाया गया है?

मर्द का औरत पर पर्यवेक्षक बनाया जाना औरत का सम्मान एवं मर्द की ज़िम्मेदारी बढ़ाना है, क्योंकि मर्द औरत की देख-भाल तथा उसकी ज़रूरतों को पूरा करता है। मुस्लिम महिलाएँ रानी की भूमिका निभाती हैं, जिसकी आशा पृथ्वी की हर महिला करती है। होशियार महिला वह है, जो वही चुनती है, जो उसे होना चाहिए। या तो एक सम्मानित रानी या सड़क पर काम करने वाली एक कामगार।

अगर हम मान लें कि कुछ मुस्लिम पुरुष इस संरक्षण का गलत इस्तेमाल करते हैं, तो यह संरक्षण प्रणाली का दोष नहीं है, बल्कि इसका दुरुपयोग करने वालों का दोष है।

इस्लाम में पुरुष को जो विरासत में मिलता है, औरत को उसका आधा हिस्सा क्यों मिलता है?

इस्लाम से पहले, महिलाओं को विरासत से वंचित कर दिया गया था। जब इस्लाम आया, तो उसे विरासत में शामिल किया। औरत को पुरुषों की तुलना में अधिक या उनके बराबर हिस्सा भी मिलता है। कुछ हालतों में वह उत्तराधिकारी बन जाती है और पुरुष नहीं बन पाता। जबकि अन्य हालतों में रिश्तेदारी और वंश के दर्जे के अनुसार पुरुषों को महिलाओं की तुलना में अधिक अनुपात प्राप्त होता है। यही वह हालत है जिसके बारे में पवित्र क़ुरआन कहता है :

''अल्लाह तुम्हारी संतान के संबंध में तुम्हें आदेश देता है कि पुत्र का हिस्सा, दो पुत्रियों के बराबर है।'' [210] [सूरा अल-निसा : 11]

एक मुस्लिम महिला ने एक बार कहा कि वह इस बात को तब तक नहीं समझ पाई, जब तक कि उसके पति के पिता की मृत्यु नहीं हो गई और उसके पति को अपनी बहन की तुलना में दोगुनी राशि विरासत में मिली। उसके पति ने उन पैसों से एक कार और अपने परिवार के एक निजी घर के लिए आवश्यक चीजें खरीदीं। जबकि उसकी बहन ने मिले पैसों से गहने खरीदे और बाकी पैसों को बैंक में जमा कर दिया। क्योंकि उसके पति को ही आवास और अन्य मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करानी थीं। तब उस महिला ने इस आदेश की हिकमत को समझा और अल्लाह का शुक्र अदा किया।

कई समाजों में महिलाएं अपने परिवार की देखभाल के लिए कड़ी मेहनत भी करती हैं, लेकिन इसकी वजह से विरासत का नियम नहीं बिगड़ेगा। क्योंकि, उदाहरण के तौर पर किसी फोन के मालिक द्वारा ऑपरेटिंग निर्देशों का पालन न करने के कारण किसी भी मोबाइल फोन का खराब हो जाना, ऑपरेटिंग निर्देशों के ख़राब होने का प्रमाण नहीं है।

इस्लाम ने पुरुष के लिए महिला को मारने की अनुमति क्यों दी?

मुहम्मद -शांति और आशीर्वाद उनपर हो- ने अपने जीवन में कभी किसी महिला को नहीं मारा। जहाँ तक क़ुरआन की उस आयत का संबंध है, जिसमें मारने के बारे में बताया गया है, तो इसका अर्थ अवज्ञा के मामले में हल्की मार है। किसी समय संयुक्त राज्य अमेरिका के मानव निर्मित क़ानून में इस प्रकार की मार की विशेषता बयान की गई है कि ऐसी मार हो जो शरीर पर कोई प्रभाव न छोड़े। दरइसल सका सहारा उससे बड़े खतरे को रोकने के लिए लिया जाता है। जैसे कि कोई अपने बेटे को गहरी नींद से जगाने पर उसके कंधे को हिलाता है, ताकि उससे परीक्षा का समय न छूट जाए।

आइए एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना करें, जो अपनी बेटी को खिड़की के सिरे पर खड़ा पाता है, ताकि वह स्वयं को गिरा ले। ऐसे में उसके हाथ अनैच्छिक रूप से उसकी ओर बढ़ेंगे और वह उसे पकड़ कर पीछे धकेल देगा, ताकि वह खुद को नुक़सान न पहुँचाए। यहाँ औरत को मारना उद्देश्य नहीं होता, बल्कि पति की कोशिश उसके घर और उसकी औलाद के भविष्य को बर्बाद करने से पत्नी को रोकने की होती है।

वह भी, यह मर्हला कई चरणों के बाद आता है, जैसा कि आयत में बताया गया है :

''फिर तुम्हें जिन औरतों की अवज्ञा का डर हो, उन्हें समझाओ और सोने के स्थानों में उनसे अलग रहो तथा उन्हें मारो। फिर यदि वे तुम्हारी बात मानें, तो उनके विरुद्ध कोई रास्ता न ढूँढो। निःसंदेह अल्लाह सर्वोच्च, सबसे बड़ा है।'' [211] [सूरा अल-निसा : 34]

सामान्य तौर पर महिलाओं की कमजोरी को देखते हुए इस्लाम ने उन्हें अधिकार दिया है कि अगर पति उनके साथ दुर्व्यवहार करता है, तो वह न्यायपालिका का सहारा ले सकती हैं।

इस्लाम में वैवाहिक संबंधों का मूल सिद्धांत यह है कि यह स्नेह, शांति और दया पर आधारित हो।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''ततथा उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्ही में से जोड़े पैदा किए, ताकि तुम उनके पास शांति प्राप्त करो। तथा उसने तुम्हारे बीच प्रेम और दया रख दी। निःसंदेह इसमें उन लोगों के लिए बहुत-सी निशाननियाँ हैं, जो सोच-विचार करते हैं।'' [212] [सूरा अल-रूम : 21]

इस्लाम ने महिलाओं को सम्मान कैसे दिया?

इस्लाम ने महिलाओं को आदम के पाप के बोझ से मुक्त करके उन्हें सम्मानित किया, जबकि अन्य धर्मों में उसे इससे मुक्त नहीं किया गया है।

इस्लाम में है कि अल्लाह ने आदम -अलैहिस्सलाम- को क्षमा कर दिया और हमें सिखाया कि यदि जीवन में कभी भी पाप हो जाए तो हम उसको कैसे क्षमा करवा सकते हैं।

''फिर आदम ने अपने पालनहार से कुछ शब्द सीख लिए, तो उसने उसकी तौबा क़बूल कर ली। निश्चय वही है जो बहुत तौबा क़बूल करने वाला, अत्यंत दयावान् है।'' [213] [सूरा अल बक़रा : 37]

मसीह की माँ मरयम एकमात्र ऐसी औरत हैं, जिसका उल्लेख पवित्र क़ुरआन में उसके नाम के साथ किया गया है।

क़ुरआन में उल्लिखित कई कहानियों में महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई है। जैसा कि सबा की रानी बिलक़ीस और पैगंबर सुलैमान -अलैहिस्सलाम- के साथ उनकी कहानी, जो उनके ईमान लाने और सारे संसार के पालनहार के प्रति समर्पण के साथ समाप्त हुई। जैसा कि पवित्र कुरान में कहा गया है : ''निःसंदेह मैंने एक महिला को पाया, जो उनपर शासन कर रही है तथा उसे हर चीज़ का हिस्सा दिया गया है और उसके पास एक बड़ा सिंहासन है।'' [214] [सूरा अल-नम्ल : 23]

इस्लामी इतिहास हमें बताता है कि पैगंबर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने बहुत सारी चीज़ों में महिलाओं से परामर्श किया और उनकी राय ली। इसी तरह आपने महिलाओं को भी पुरुषों की तरह मस्जिदों में आने की अनुमति दी, बशर्तेकि वे शालीनता का पालन करें, लेकिन ज्ञात हो कि उनके लिए अपने घर में नमाज़ पढ़ना ही बेहतर है। महिलाएँ पुरुषों के साथ युद्धों में भाग लेती थीं और ज़ख़्मियों की देखभाल में सहायता करती थीं। इसी तरह वे वाणिज्यिक लेन-देन में भी शामिल होती थीं और शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा करती थीं।

प्राचीन अरब संस्कृतियों की तुलना में इस्लाम ने महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार किया है। उसने कन्या हत्या पर रोक लगाई और महिलाओं को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाया। उसने विवाह के संबंध में संविदात्मक मामलों को भी व्यवस्थित किया, जहाँ महिलाओं के लिए महर के अधिकार को संरक्षित किया, उन्हें विरासत का अधिकार तथा निजी संपत्ति का अधिकार दिया और यह हक़ दिया कि अपने धन का खुद प्रबंध कर सकती हैं।

अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है : ''सबसे सम्पूर्ण ईमान वाला व्यक्ति वह है, जो सबसे अच्छे आचरण वाला हो और तुम्हारे अंदर सबसे उत्तम व्यक्ति वह है, जो अपनी पत्नियों के हक़ में सबसे अच्छा हो।'' [215] [इसे इमाम तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है।]

अल्लाह तआला ने कहा है :

''निःसंदेह मुसलमान पुरुष और मुसलमान स्त्रियाँ, ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्रियाँ, आज्ञाकारी पुरुष और आज्ञाकारिणी स्त्रियाँ, सच्चे पुरुष और सच्ची स्त्रियाँ, धैर्यवान पुरुष और धैर्यवान स्त्रियाँ, विनम्रता दिखाने वाले पुरुष और विनम्रता दिखाने वाली स्त्रियाँ, सदक़ा (दान) देने वाले पुरुष और सदक़ा देने वाली स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष और रक्षा करने वाली स्त्रियाँ तथा अल्लाह को अत्यधिक याद करने वाले पुरुष और याद करने वाली स्त्रियाँ, अल्लाह ने इनके लिए क्षमा तथा महान प्रतिफल तैयार कर रखा है।'' [216] [सूरा अल-अहज़ाब : 35]

''ऐ ईमान वालो! तुम्हारे लिए हलाल (वैध) नहीं कि ज़बरदस्ती स्त्रियों के वारिस बन जाओ। और उन्हें इसलिए न रोके रखो कि तुमने उन्हें जो कुछ दिया है, उसमें से कुछ ले लो, सिवाय इसके कि वे खुली बुराई कर बैठें। तथा उनके साथ भली-भाँति जीवन व्यतीत करो। फिर यदि तुम उन्हें नापसंद करो, तो संभव है कि तुम किसी चीज़ को नापसंद करो और अल्लाह उसमें बहुत ही भलाई रख दे।'' [217] [सूरा अन-निसा : 19]

''ऐ लोगो! अपने उस पालनहार से डरो, जिसने तुम्हें एक जीव (आदम) से पैदा किया तथा उसी से उसके जोड़े (हव्वा) को पैदा किया और उन दोनों से बहुत-से नर-नारी फैला दिए। उस अल्लाह से डरो, जिसके माध्यम से तुम एक-दूसरे से माँगते हो, तथा रिश्ते-नाते को तोड़ने से डरो। निःसंदेह अल्लाह तुम्हारा निरीक्षक है।'' [218] [सूरा अल-निसा : 1]

“जो भी अच्छा कार्य करे, नर हो अथवा नारी, जबकि वह ईमान वाला हो, तो हम उसे अच्छा जीवन व्यतीत कराएँगे। और निश्चय हम उन्हें उनका बदला उन उत्तम कार्यों के अनुसार प्रदान करेंगे जो वे किया करते थे।" [219] [सूरा अनल-नह्ल : 97]

''वे तुम्हारे लिए वस्त्र हैं और तो तुम उनके लिए वस्त्र हो।'' [220] [सूरा अल-बक़रा : 187]

''तथा उसकी निशानियों में से है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्ही में से जोड़े पैदा किए, ताकि तुम उनके पास शांति प्राप्त करो। तथा उसने तुम्हारे बीच प्रेम और दया रख दी। निःसंदेह इसमें उन लोगों के लिए बहुत-सी निशाननियाँ हैं, जो सोच-विचार करते हैं।'' [221] [सूरा अल-रूम : 21]

''(ऐ नबी!) लोग आपसे स्त्रियों के बारे में फ़तवा (शरई हुक्म) पूछते हैं। आप कह दें कि अल्लाह तुम्हें उनके बारे में फतवा देता है, तथा किताब की वे आयतें भी जो अनाथ स्त्रियों के बारे में तुम्हें पढ़कर सुनाई जाती हैं, जिन्हें तुम उनके निर्धारित अधिकार नहीं देते और तुम चाहते हो कि उनसे विवाह कर लो, तथा कमज़ोर बच्चों के बारे में भी यही हुक्म है, और यह कि तुम अनाथों के मामले में न्याय पर क़ायम रहो। तथा तुम जो भी भलाई करते हो, अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है। और यदि किसी स्त्री को अपने पति की ओर से ज़्यादती या बेरुखी का डर हो, तो उन दोनों पर कोई दोष नहीं कि आपस में समझौता कर लें और समझौता कर लेना ही बेहतर है। तथा लोभ एवं कंजूसी तो मानव स्वभाव में शामिल है। परंतु यदि तुम एक-दूसरे के साथ उपकार करो और (अल्लाह से) डरते रहो, तो निःसंदेह अल्लाह तुम्हारे कर्मों से सूचित है।'' [222] [सूरा अल-निसा : 127,128]

अल्लाह तआला ने पुरुषों को महिलाओं पर खर्च करने और अपने धन को संरक्षित करने का आदेश दिया है, बिना इसके कि परिवार के प्रति महिला का कोई भी वित्तीय दायित्व हो। इस्लाम ने महिला के व्यक्तित्व और पहचान को भी संरक्षित किया, जैसा कि वह अपने पति से जुड़ने के बाद भी अपने (नाम के साथ) अपने परिवार का नाम बाक़ी रख सकती है।