मानव पिता आदम -अलैहिस्सलाम- के वर्जित पेड़ से खा लेने के कारण, उनकी तौबा स्वीकार करने के समय अल्लाह ने जो मानव को पाठ पढ़ाया, वह सारे संसारों के रब के द्वारा मानव को क्षमा करने का पहला उदाहरण था। चूँकि आदम से विरासत में मिले पाप का कोई अर्थ नहीं है, जैसा कि ईसाइ मानते हैं, इसलिए कोई किसी के गुनाह का बोझ नहीं उठाएगा। हर व्यक्ति अपने गुनाह का बोझ अकेला उठाएगा। यह हमपर अल्लाह की एक दया है कि इंसान गुनाहों से पाक-साफ़ होकर पैदा होता है और वह वयस्क होने के बाद से ही अपने कर्मों का स्वयं ज़िम्मेदार है।
इंसान से उस गुनाह का हिसाब ही नहीं लिया जाएगा, जिसको उसने किया ही नहीं। इसी प्रकार वह अपने ईमान एवं अच्छे कार्य के कारण ही मुक्ति पाएगा। अल्लाह ने इंसान को जीवन दिया तथा उसे आज़माने एवं उसकी परीक्षा लेने के लिए उसे इरादा दिया। वह केवल अपने कर्मों का ज़िम्मेवार है।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''कोई किसी का बोझ नहीं उठाएगा। फिर तुम्हें अपने रब की ओर लौटना है, जो तुम्हें तुम्हारे कर्मों के बारे में बता देगा। वह दिलों के भेद को जानता है।'' [176] [सूरा अल-जुमर : 7]
ओल्ड टेस्टामेंट में आया है :
''औलाद के बदले बापों को नहीं मारा जाएगा, और बापों के बदले औलाद को नहीं मारा जाएगा। हर इंसान का उसके अपने गुनाह के बदले वध किया जाएगा।'' [177] [Book of Deuteronomy : 24:16]
जिस तरह क्षमा न्याय के साथ असंगत नहीं है, वैसे ही न्याय क्षमा और दया को रोकता नहीं है।
अल्लाह जो सारे संसार का सृष्टिकर्ता है, ज़िन्दा तथा नित्य स्थायी है। बेनियाज़ एवं सक्षम है। उसे मानवता के लिए मसीह का रूप धारण करके सूली पर चढ़कर जान देने की आवश्यकता नहीं है, जैसा कि ईसाई मानते हैं। वही जीवन देता है एवं वही जीवन लेता भी है। इसलिए वह मरा नहीं है और इसी तरह वह किसी का रूप धारण करके दुनिया में आया भी नहीं था। उसने ईसा मसीह -अलैहिस्सलाम- को हत्या एवं सूली पर चढ़ाए जाने से बचाया, जिस प्रकार उसने इब्राहीम -अलैहिस्सलाम- को आग से बचाया था, मूसा -अलैहिस्सलाम- को फ़िरऔन एवं उसकी फ़ौज से बचाया था और जिस प्रकार वह हमेशा अपने नेक बन्दों की सुरक्षा और हिफ़ाज़त करता आया है।
अल्लाह तआला ने कहा है :
''तथा उनके (गर्व से) यह कहने के कारण कि निःसंदेह हमने ही अल्लाह के रसूल मरयम के पुत्र ईसा मसीह को क़त्ल किया। हालाँकि न उन्होंने उसे क़त्ल किया और न उसे सूली पर चढ़ाया, बल्कि उनके लिए (किसी को मसीह का) सदृश बना दिया गया। निःसंदेह जिन लोगों ने इस मामले में मतभेद किया, निश्चय वे इसके संबंध में बड़े संदेह में हैं। उन्हें इसके संबंध में अनुमान का पालन करने के सिवा कोई ज्ञान नहीं, और उन्होंने उसे निश्चित रूप से क़त्ल नहीं किया। बल्कि अल्लाह ने उसे अपनी ओर उठा लिया तथा अल्लाह सदा से हर चीज़ पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।'' [178] [सूरा अल-निसा : 157-158]
एक मुसलमान पति अपनी ईसाई या यहूदी पत्नी के मौलिक धर्म, उसकी धार्मिक पुस्तक एवं उसके रसूल का सम्मान करता है। बल्कि उसका ईमान इसके बग़ैर पूरा ही नहीं होता है। वह उसे अपने धर्म को मानने की स्वतंत्रता देता है। जबकि इसके विपरीत बात सत्य नहीं है। यहूदी या ईसाई जब इस बात का विश्वास रखेंगे कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई माबूद नहीं है एवं मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अल्लाह के रसूल हैं, हम अपनी बेटियों की शादी उनसे कर देंगे।
इस्लाम अक़ीदे में वृद्धि करता और उसे पूर्णता प्रदान करता है। उदाहरण के तौर पर यदि कोई मुसलमान ईसाई धर्म अपनाना चाहे, तो उसके लिए ज़रूरी हो जाता है कि वह मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- एवं क़ुरआन पर अपने ईमान को खो दे, साथ ही ट्रिनिटी में विश्वास रखे और पादरियों तथा अन्य लोगों का सहारा लेने के कारण सारे संसारों के रब के साथ सीधे संबंध को भी खो दे। और यदि यहूदी धर्म ग्रहण करना चाहे, तो उसके लिए ज़रूरी होगा कि वह मसीह -अलैहिस्सलाम- एवं सही इंजील पर विश्वास न रखे। हालाँकि किसी के पास यहूदी धर्म अपनाने का अवसर ही नहीं है। क्योंकि यह कोई वैश्विक धर्म नहीं, बल्कि एक जाति विशेष का धर्म है। इसमें सांप्रदायिक संकीर्णता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।