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सत्य धर्म की विशेषताएँ क्या हैं?

यह आवश्यक है कि सत्य धर्म इंसान की प्रथम फ़ितरत के अनुसार हो, जिसे बिना किसी मध्यस्थ के अपने सृष्टिकर्ता के साथ सीधे संबंध की आवश्यकता होती है और जो इंसान में सद्गुणों और अच्छे आचरणों का प्रतिनिधित्व करती है।

वह धर्म अनिवार्य रूप से एक हो, आसान हो, सरल हो, समझ में आने वाला हो, जटिल न हो तथा हर युग व स्थान के लिए उचित हो।

वह हर युग में इंसान की आवश्यकता के अनुसार, क़ानूनों में विविधता के साथ सभी नस्लों, देशों और हर प्रकार के इंसान के लिए स्थापित हो। वह मानव निर्मित रस्मों और रिवाजों की तरह न इच्छाओं के अनुसार की जाने वाली ज़्यादती को स्वीकार करे और न कमी को।

उसमें स्पष्ट आस्थाएँ हों, उसे किसी मध्यस्थ की ज़रूरत न हो और वह केवल भावनाओं पर आधारित न हो, बल्कि उसका आधार स्पष्ट एवं सही दलील पर हो।

उसके दायरे में जीवन की सारी समस्याओं के साथ-साथ हर युग एवं हर स्थान आता हो। इसी प्रकार उसे दुनिया एवं आख़िरत के अनुकूल होना चाहिए। वह आत्मा को बनाए, परन्तु शरीर को भी न भूले।

वह इंसान की जान, इज़्ज़त व सम्मान, धन, अधिकार एवं विवेक की रक्षा करे।

इस प्रकार जो व्यक्ति मानव स्वभाव के अनुसार आई हुई इस जीवन पद्धति का पालन नहीं करेगा, वह उथल-पुथल और अस्थिरता की स्थिति में रहेगा, बेचैनी महसूस करेगा और आख़िरत का अज़ाब तो अलग है।

धर्म की छत्रछाया में आचरण के पालन का क्या महत्व है?

जब मानव जाति फ़ना हो जाएगी, जो केवल अल्लाह बाक़ी रह जाएगा, जो हमेशा जीवित रहेगा और जिसे मौत नहीं आनी है। जो व्यक्ति धर्म की छत्रछाया में आचरण के पालन के महत्व को नकारता है, वह उस व्यक्ति की तरह है, जो बारह वर्ष क्लास में पढ़े और अंत में कहे कि मुझे सर्टिफिकेट नहीं चाहिए।

अल्लाह तआला ने कहा है :

''और हम उसकी ओर आएँगे जो उन्होंने कोई भी कर्म किया होगा, तो उसे बिखरी हुई धूल बना देंगे।'' [41] धर्म का उद्देश्य यह है कि इंसान से उसके रब का परिचय कराए। फिर इंसान को उसके अस्तित्व के स्रोत, उसके मार्ग एवं उसके अंजाम से अवगत कराए। अच्छा अंत एवं अच्छा ठिकाना सारे संसार के पालनहार की जानकारी हासिल करके, उसकी इबादत तथा उसकी रज़ामंदी के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है और यह रज़ामंदी अच्छे आचरण से धरती को आबाद करके प्राप्त हो सकती है। शर्त यह है कि बन्दे के काम अल्लाह की ख़ुशी हासिल करने के लिए हों।

[अल- फ़ुरक़ान : 23] धरती को आबाद करना एवं अच्छे आचरण का पालन करना, दोनों धर्म का उद्देश्य नहीं हैं, लेकिन वास्तव में दोनों साधन हैं।

मान लीजिए कि किसी व्यक्ति ने पेंशन प्राप्त करने के लिए किसी सामाजिक सुरक्षा संस्था में साइन अप किया और कंपनी ने घोषणा कर दी कि वह पेंशन का भुगतान नहीं कर पाएगी और जल्द ही वह बंद हो जाएगी। अब यह जानने के बाद क्या वह उस संस्था के साथ जुड़ा रहेगा?

जब इंसान मानवता के निश्चित अंत को जान लेगा और उसे इस बात का विश्वास हो जाएगा कि वह इस सफर के अंत में उसे बदला देने की क्षमता नहीं रखती है तथा मानवता की भलाई के लिए उसने जो कार्य किए हैं, सब बर्बाद हो जाएंगे, तो उसे सख़्त विफलता का एहसास होगा। मोमिन वह है जो नेक काम करे, मेहनत करे, लोगों के साथ अच्छा मामला और मनुष्यता की मदद भी करे, लेकिन यह सब अल्लाह के रास्ते में। इसके नतीजे में वह दुनिया एवं आख़िरत में ख़ुशी प्राप्त करेगा।

इस बात का कोई अर्थ नहीं है कि कामगार अपने दूसरे साथियों के साथ संबंध बनाए रखे, उनका सम्मान करे, मगर अपने मालिक के साथ संबंध को नज़र अंदाज़ करे। इसी लिए जीवन में भलाई एवं दूसरे के सम्मान को पाने के लिए ज़रूरी है कि अपने सृष्टिकर्ता के साथ हमारा संबंध अच्छा एवं मज़बूत हो।

इसी के साथ हम कहेंगे कि वह कौन-सा कारण है, जो एक व्यक्ति को नैतिक मूल्यों का पालन करने, क़ानूनों का सम्मान करने एवं दूसरों की इज़्ज़त करने के लिए प्रेरित करता है? या वह कौन-सी व्यवस्था है, जो इंसान को व्यवस्थित करती है और उसे बुराई के बजाय भलाई करने पर मजबूर करती है? यदि इसका उत्तर यह हो कि यह क़ानून की शक्ति है, तो हम इसका खंडन करेंगे और कहेंगे कि क़ानून हर युग व स्थान में मौजूद नहीं होता। वह अकेले क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सभी समस्याओं के निपटारे के लिए पर्याप्त नहीं है। अधिकांश इंसानों के काम क़ानून एवं लोगों की आँखों में धूल झोंककर अंजाम पाते हैं।

धर्म की आवश्यकता को बयान करने के लिए यह प्रमाण ही पर्याप्त है कि इतनी बड़ी संख्या में धर्म पाए जाते हैं, जिसकी शरण धरती के अधिकांश समुदाय लेते हैं, ताकि वो उनके जीवन को संगठित करें और इस धरती पर पाए जाने वाले समुदायों के कामों को धार्मिक क़ानूनों की बुनियाद पर व्यवस्थित करें। जैसा कि हम जानते हैं कि क़ानून की अनुपस्थिति में इंसान को व्यवस्थित करने वाली एक मात्र चीज़ उसका धार्मिक विश्वास है। हर समय एवं हर जगह इंसान के साथ क़ानून का पाया जाना संभव नहीं है।

इंसान के लिए एकमात्र प्रतिबंधक तथा प्रतिरोधक उसके ऊपर एक पहरेदार और एक हिसाब लेने वाले की उपस्थिति के बारे में उसका आंतरिक विश्वास है। वास्तव में यह विश्वास उसके सीने के अंदर दफ़न होता है। जब वह कोई ग़लत काम करने के लिए सोचता है तो यह विश्वास स्पष्ट रूप से सामने आता है। उस समय उसके अंदर मौजूद अच्छाई एवं बुराई की क्षमताएँ लड़ती हैं और वह बुरे काम या हर ऐसे काम को लोगों से छुपाने की कोशिश करता है, जिसे अपरिवर्तित स्वभाव नकारता है। यह सब कुछ मानव जाति के दिल की गहराई में धर्म के अर्थ एवं विश्वास के अस्तित्व की हक़ीक़त का प्रमाण है।

धर्म उस रिक्त स्थान को भरने के लिए आया है, जिसे मानव निर्मित क़ानून भर नहीं सकते या समय तथा स्थान की भिन्नता के साथ दिमागों एवं दिलों को व्यवस्थित कर नहीं सकते।

इंसान के अंदर अच्छे काम करने के लिए प्रेरित करने वाली चीज़ एक-दूसरे से भिन्न होती है। कोई काम करने, नैतिक मूल्यों या निर्धारित आचरणों को अपनाने के पीछे हर व्यक्ति के अपने उद्देश्य और खास फ़ायदे होते हैं। उदाहरण स्वरूप :

सज़ा : कभी-कभी यह इंसान को दूसरे के साथ बुरा करने से रोकती है।

प्रतिफल : कभी-कभी यह इंसान को अच्छा काम करने पर उभारता है।

आत्म संतुष्टि : कभी-कभी इंसान की आत्म संतुष्टि ही उसकी वासनाओं एवं ख़्वाहिशों से नियंत्रित करती है। इंसान का एक मूड और मनोदशा होती है। आज जो उसे पसंद है, हो सकता है कल नापसंद हो।

धार्मकि प्रतिबंधक : इसका मतलब है अल्लाह का ज्ञान, उसका डर और इंसान जहाँ भी जाए अल्लाह के अस्तित्व का एहसास। यह बहुत मजबूत और प्रभावी प्रेरणा है। [42] Atheism A Giant Leap of Faith. Dr. Raida Jarrar

सकारात्मक या नकारात्मक रूप से लोगों की भावनाओं और ख़यालों को हरकत देने में धर्म का बहुत प्रभाव है। यह हमें बताता है कि लोगों का मूल स्वभाव अल्लाह की जानकारी पर आधारित है। बहुत बार जान-बूझकर या अनजाने में इनसान को उकसाने के लिए इसका दुरुपयोग भी होता है। इससे पता चलता है कि इनसान के बोध के संबंध में धर्म बहुत ही महत्वपूर्ण है, इसलिए कि मामला सृष्टिकर्ता से संबंधित है।

क्या धर्म की ओर पलटना विवेक तथा सोचने समझने की शक्ति को निष्क्रिय कर देता है?

अक़्ल की भूमिका चीज़ों को आंकने और उनको प्रमाणित करने की है। अतः इंसान के अस्तित्व के उद्देश्य तक अक़्ल का पहुँच न पाना, उसकी भूमिका का ख़त्म हो जाना नहीं है, बल्कि धर्म को यह अवसर प्रदान करना है कि वह इन्सान को वह बात समझाए, जो अक़्ल समझ नहीं पाई। धर्म इंसान को उसके सृष्टिकर्ता के बारे, उसके अस्तित्व के स्रोत एवं उसके उद्देश्य के बारे में बताता है। तब अक़्ल इन बातों को समझने का प्रयास करती है, इनका मूल्यांकन करती है एवं इनकी पुष्टि करती है। इस तरह सृष्टिकर्ता के वजूद को मान लेने से विवेक तथा तर्क निष्क्रिय नहीं हुआ।